गोल चक्कर
गोल चक्कर
दूर कोसों हो,
पर न जाने वो घर आज भी घर है,
गर अकस्मात कोई पूछ ले पता,
घर ही घर है देता हूँ बता,
गए, न ही हुए है बरसों,
पिछले दिवाली की ही तो बात है,
मरम्मत के लिए कारीगर आए थे,
दादाजी यूँ टकटकी निगाहों से
एक एक बारीकियों को परख रहे थे,
अब पसीने से सींच कर खड़ी की थी एक-एक दीवार,
चाचा के बच्चे दोनों कंधे पे लटके,
वो गोल-गोल घुमाने की जिद कर रहे थे,
अब नकार तो दिया पहली बार,
पर ठहरा तो मैं भी 20 का ही,
बचपन गुजरे कुछ साल ही हुए थे।
हाँ ! कुछ साल ही, अब गाँव का बचपन भी
शहर की गर्मियों की तरह लंबी होती है,
10 साल तक माँ खुद नाक साफ करती थी,
बारह तक तो रेत की बांध बनाकर बारिश में
मोहल्ले के बहते पानी रोका करते थे,
अब शायद इसलिए भी सिविल इंजीनियरिंग
की पढ़ाई कर रहे हैं,
कि गर हुई बारिश तो अब तो रोक ही लूंगा,
खैर छोड़ो !
मैं भी कहां अपनी कहानियों में उलझा दिया
अब हुआ यूँ कि मैं तो घुमाने लगा गोल-गोल,
वो भी मजे से घुमने लगे,
एक चक्कर, दो चक्कर, तीन चक्कर
धड़ाम !
आवाज सुन दादाजी की टकटकी निगाहें हमारी तरह,
अंदर दादी कुर्सी पर बैठी,
अरहर के दाल से कंकड़ अलग कर रही थी,
इस अकस्मात हुए शोर से बाहर आ गई,
यूँ तो जोड़ों के दर्द से परेशान रहती,
उस रोज़ बिजली सी तेजी थी उनकी रफ्तार में,
ठीक उस जमाने की जब दादी दादाजी से रूठकर
अपने नेहर जा रही थी,
और दादाजी की साइकिल की रफ्तार भी मात खा गई थी,
खैर ये किस्सा कभी और !
चाचा अखबार की पंक्तियों में राशिफल देख खुश थे कि
उन तक भी पहुंच गई ये बात !
अब मोटरसाइकिल लिए
अपने किराने की दुकान से घर पहुंच गए ।
हुआ कुछ यूं कि जब तक घर पहुँचते,
तब तक तो सारा मसला शांत पड़ चुका था,
दादी और माँ के नालायक और निकम्मे के तानों का
कार्यक्रम भी समाप्त हो चुका था
और दादाजी ने उन दोनों को चॉकलेट भी दिला दी थी ।
अब साहबजादे( ऐसा दादाजी चाचा को बुलाते थे)
करें तो करें क्या, मुझे तो डांटने से रहे,
मेरा बचपन और उनकी जवानी साथ-साथ जो गुजरी।
उनके कारनामों की कच्चे-चिट्ठे के नाम पर आज भी डर जाते
अक्सर मैं ही बहाना बनता उनके बाहर जाने का,
और मुझे तो छोड़ देते हलवाई की दुकान पे और खुद फुरर हो जाते,
ये तो सालों बाद पता चली कि कहाँ जाते,
जब दादाजी से कुटे गए थे,
और फिर शादी हो गई चाची से,
जिससे मिलने जाते मुझे दुकान में छोड़कर !
अब ये जो लंबी कहानी सुनाई, तात्पर्य बस इतना था कि
मैं तो डांटा गया नहीं, अब किया यूँ कि दोनों बच्चों को बुलाकर
डांट फटकार दो चाटे जड़ दिए
और इससे पहले कि वो दादाजी की नजरों में आते,
मोटरसाइकिल उठाई और फुरर हो गए।
अरे नहीं-नहीं इस बार तो दुकान गए,
चाची तो घर ही थी।
अब वो दोनों फिर रोने लगे,
दादाजी जब वापस लोटे तो रोने की आवाज बढ़ा दी,
इसी उम्मीद से कि फिर चॉकलेट मिलेगी।
अब शाम हो चली थी, तो दादाजी उन दोनों को ले गए
हलवाई की दुकान और साथ-साथ मैं भी चल दिया।