फ़रिश्ता
फ़रिश्ता
मई 2011, मैं पटना में कार्यरत थी और अपनी दो छोटी बहनों के साथ रहती थी। शादी ब्याह का महीना चल रहा था। मतलब उत्साह और रौनक से भरा हुआ महीना। शादियों में जाना, सजना-सँवरना और अपनों से मिलना-जुलना। ऐसे मौकों पर मैं तो खास तौर पर उत्साहित हो जाया करती थी। संयोग ऐसा हुआ कि मेरी चचेरी बहन और ममेरी बहन दोनों की शादी एक ही तिथि पर तय हो गई। असमंजस पैदा हो गया, दोनों जगह जाना आवश्यक था लेकिन एक शादी शाही लीची के लिए मशहूर बिहार के मुजफ्फरपुर शहर में थी और दूसरी झारखंड के स्टील सिटी बोकारो में। दोनों विवाह में एक साथ उपस्थित हो पाना असम्भव था। काफी सोच विचार के बाद तय हुआ कि माँ-पापा मुजफ्फरपुर चचेरी बहन की शादी में जाएंगे और मैं अपनी छोटी बहनों के साथ बोकारो में मामा जी की बेटी की शादी में शामिल होऊंगी।
सब तय होते ही हमने टिकट बुक करा ली। कब क्या पहनना है, कैसे तैयार होना है, क्या उपहार ले कर जाना है, हमने सब कुछ बड़े दिल से किया। सच में हम तीनों बहुत उत्साहित थे।
निर्धारित दिन हम यात्रा के लिए ट्रेन पर सवार थे। यात्रा की खुशी हम तीनों के मुख पर थी। बड़ी बहन बनकर अपनी छोटी बहनों के साथ यात्रा करने का मुझमें अलग ही जोश था। मैं स्वयं में अभिभावकत्व का बोध महसूस कर पा रही थी और जिम्मेदारी का गौरवपूर्ण आभास हो रहा था। देर रात तक हम गप्पे मारते रहें। फिर अपने-अपने बर्थ पर जाकर सो गए। अगली सुबह सात-साढ़े सात बजे के लगभग ट्रेन बोकारो थर्मल प्लेटफार्म पर रुकी। क्योंकि हमें बोकारो थर्मल नहीं, बोकारो सिटी तक जाना था इसलिए हम आराम से चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। कुछ ही पल बाद सामने बैठे यात्रियों ने हमसे पूछा "आपको कहाँ तक जाना है?"
"बोकारो सिटी" मैंने जवाब दिया।
"अरे फिर बैठी क्यों हो तुम लोग? ये गाड़ी तो अब सीधे राँची रुकेगी। ट्रेन खुलने वाली होगी, जल्दी उतरो तुम सब!"
हमें और कुछ सोचने-विचरने का अवसर ही नहीं मिला। ट्रेन खुलने में ज्यादा वक्त न था। इसलिए हमने झट-पट सामान समेटा और नीचे उतर गए।
बाहर मौसम का मिज़ाज एकदम बिगड़ा हुआ था। लगा रहा था पूरी रात बारिश हुई है जो अभी भी लंबे समय तक रुकने वाली नहीं है। एक बहुत ही छोटा सा स्टेशन था वह। वहाँ से बाहर निकल कर हमने ऑटो वाले को अपना पता बताए और किराया पूछा। ऑटो वाले ने अचरज से हमें देख और कहा "मैडम ये बोकारो थर्मल है, आपको सिटी जाना है। आपको ट्रेन या बस से जाना होगा। यहाँ से बस तो अब नहीं मिलेगी, आप ट्रेन का पूछ लीजिए।"
सुनते ही हम भागते हुए टिकट काउंटर पर गए। वहाँ जाकर पता चला कि बोकारो सिटी के लिए आज देर शाम तक कोई भी ट्रेन नहीं है। सामान उठाए बारिश की फुहारों से बचने का नाकामयाब प्रयास करते हुए हम फिर स्टेशन के बाहर आए। एक ऑटो वाले ने झट से अपना ऑटो हमारे पास लाया और हमें बैठा लिया। हमने भी बारिश से बचते हुए पहले ऑटो में बैठने में ही गनीमत समझी। हम व्यवस्थित हुए तब ऑटो वाले ने पूछा "बताइए मैडम कहाँ चलना है आपको?"
"बस स्टैंड" हम तीनों ने एक साथ जवाब दिया।
ऑटो वाले ने पीछे मुड़कर हमें देखा और कहा "वो तो बहुत दूर है मैडम एक-डेढ़ घंटा लगेगा। मौसम भी ख़राब है। ऑटो से नहीं जा सकते। आपको किसी ट्रैकर या जीप से जाना होगा। आज इस मौसम में वो भी मिलना मुश्किल लग रहा है।"
उसकी बात सुनकर हम बहनों ने एक दूसरे को देखा, सबके चेहरे पर एक ही सवाल था "ये कहाँ फँस गए हम?"
संभवतः ऑटो वाले ने हमारे चेहरे का भाव पढ़ लिया था, इसलिए कहा "कोई बात नहीं मैं कोई सवारी गाड़ी देखता हूँ जो आपको बस स्टैंड तक पहुँचा दे।"
वह हमें लेकर चल पड़ा। 20-25 मिनट बाद ऑटो एक जगह रुकी जहाँ इक्की-दुक्की और गाड़ियां रुकी हुई थी। बारिश के कारण ऑटो चालक ने हमें ऑटो में ही बैठने को कहा और स्वयं उतर कर बाकी गाड़ी वालों से पूछ-ताछ करने लगा। कुछ मिनट तक वह इधर-उधर भागता रहा, बारिश में भिंगता रहा। मेरी नज़र उसकी गतिविधि पर ही टिकी थी। डर लग रहा था कि कहीं हमने उसके साथ अनजान जगह में स्टेशन से इतनी दूर आकर किसी मुसीबत को तो बुलावा नहीं दे दिया! मेरा मन शंकित था, और शायद मेरी बहनों का भी। लेकिन मेरी तरह उन्होंने भी जाहिर नहीं किया और एक दूसरे को देख कर, बातें कर हम हिम्मत बनाते रहे।
थोड़ी देर में ऑटो चालक ने कहा "मैडम, कोई नहीं जाना चाहता। अगर दूरी कम होती तो मैं ही पहुँचा देता, लेकिन मेरी गाड़ी इतनी दूर चल न सकेगी। कोई बात नहीं कुछ और देखते हैं। चलिए तब तक आपको चाय पिलाता हूँ।" हमने मना किया, लेकिन उसने कहा "अरे पी लीजिए मैडम, इतना समय हो गया है आपालोग भी भीगे हुए हैं। चाय पी लीजिए।" कहता हुआ वह पास के ही चाय की गुमटी से चाय ले आया। हम हाथ में चाय की प्याली थामे बैठे थे, ऑटी चालक ने जब चाय की चुस्की ली तब हमने भी संदेह त्याग चाय पीना शुरू कर दिया। चाय पीकर मैंने चाय के पैसे देने की कोशिश की तो उसने साफ मना कर दिया। मैंने भी ज़िद नहीं की, सोचा घंटों से उसकी ऑटो पर कब्जा कर बैठे हैं हमलोग, आज हमारा दिन तो खराब है ही इस बेचारे की कमाई भी छेक कर बैठ गए हैं। जब ऑटो छोड़ेंगे तब सब एक साथ दे देंगे।
ऑटो वाला फिर अपनी ऑटो को चलाने लगा था। रास्ते में जो भी गाड़ी मिलती, सबसे हमें बस स्टैंड ले जाने केलिए बात करता। अंततः एक सवारी से भरी जीप मिली जो उसी ओर जा रही था। ऑटो वाले ने हमें जल्दी से उसमें बैठने को कहा। हमारा सामान सलीके से रखवाया और ड्राइवर को खूब हिदायतें भी दी "ठीक से ले जाना, इनको सिटी के बस में भी बैठा देना, जिम्मेदारी से ले जाना।" जैसे घर का को बड़ा आपकी चिंता करता है ना, ठीक वही चिंता और सजगता उसके चेहरे पर थी। मैंने पाँच सौ का नोट निकाल कर उसकी ओर बढ़ाया, इससे कम और क्या देती? उसके आधे दिन का वक्त हमें इधर-उधर घुमाते हुए निकल गया था। लेकिन उसने जो कहा वह हैरान करने वाला था "चेंज दीजिए मैडम, इसका छुट्टा कहाँ से लाऊंगा?"
मैंने पूछा "कितना हुआ?" जवाब मिला ....."तीस रुपए.."
"तीस रुपए....मात्र तीस....!!" हम तीनों बहनें हैरान थीं। मेरे छोटी बहन ने कहा "भैया और चाय का?"
"अरे उसका क्या, उसका पैसा थोड़े ना लेंगे, बस तीस दीजिए।"
हमने थोड़ी देर तक चाहा की वह मान जाए और पूरे पैसे ले, लेकिन वह नहीं माना। जो वाजिब किराया उसके ऑटो के ईंधन की खपत के हिसाब से बनता था, उससे तनिक ज्यादा लेना मुनासिब नहीं समझा। हमने भी उसके ईमानदारी का सम्मान किया और जीप में बैठे आगे निकल गए। पीछे वह पूरी तरह भिंगा हुआ अपनी ऑटो में निकाल गया। बैठते हुए शायद ऑटो में लटकी हुई काबा की तस्वीर उसके माथे को छू गई, शायद परमात्मा आज के इस छल कपट और महत्वाकांक्षा से भरी दुनिया में नेकी और ईमानदारी से अपनी इंसानियत को बचाए रखने वाले बंदों की पेशानी ऐसे ही चूम लेता है।
लगातार हो रही बारिश के बीच हम यात्रियों से भरी गाड़ी में अपने गंतव्य की ओर बढ़ रहे थे। अधिकांश रास्ते सड़क के दोनों किनारे भूमिगत आग की दहक देखने को मिल रही थी। तपती भूमि पर बरसात पानी और ऊपर उठता धुआँ। आकाश जल बरसा कर उस ज्वाला को पी जाना चाहता था, तो पृथ्वी भी जैसे धुआँ बन कर आकाश में सामने को आतुर थी। मैं सोच रही थी कितना कुछ लील लिया इस भूमिगत अग्नि ने। संपदा, संसाधन, गाँव, शहर, चैन, सुकून सब कुछ स्वाहा होता जा रहा है।
हाँ, ऐसी ही एक और आग लगी है इंसान के दिलों में, नफ़रत की आग। जो लग जाए तो सामने खड़ा प्रत्येक व्यक्ति शत्रु बन जाता है। जरूरतमंद गुहार लगाते रह जाते हैं, और नफ़रत अट्टहास करने में मशगूल रह जाता है। इस ज्वालामुखी के बीच शीतल जल कुंड के समान उस ऑटो चालक जैसे मनुष्यों ने मानवता को जीवित रखने का बीड़ा उठाया हुआ है।
मैं कई बार सोचती हूँ कि काश मैंने उससे कोई संपर्क का नंबर या पता लिया होता, हर रोज़ उनकी नेकी का शुक्रिया उन्हें भेजती। लेकिन मैं जानती हूँ कि हमारा आभार हमारी दुआएँ सब उन तक जाती होंगी....परमात्मा उनकी पेशानी ऐसे ही रोज चूमता होगा।
