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एक पत्र माँ की तरफ से बेटी को

एक पत्र माँ की तरफ से बेटी को

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प्यारी गुड़िया,

कितना कुछ है कहने को, कितना कुछ है लिखने को,

कितना कुछ, वो सब, जो मैं कभी तुमसे कह नहीं पाई, वो सब जो शायद मैं कभी तुमसे कह नहीं पाऊँगी, मुझे आज भी याद है वो पल, ज्यों का त्यों, बिना मिलावट का वो पल, जब मैं, जो अभी खुद को ही संभाल रही थी, उस पल, जब मुझे तुम्हारे होने का एहसास हुआ था,

न जाने कैसा एहसास था वो, खुश तो कम थी, पर हैरान ज्यादा थी और न जाने कैसा सा वो डर भीतर आ गया था ॥

जैसे- जैसे वक़्त बीता, मुझे यह एहसास हो उठा था कि, हमारे समाज का वो कड़वा सत्य मुझे भी झेलना था, हाँ, वो बेटा पाने की लालसा सबके भीतर थी॥

खैर, धीरे-धीरे वो पल भी आ उठा ........जब मैंने तुम्हें नर्स के हाथ में पहली बार देखा,

तुम्हें देखते ही आँखें नम हो आई ॥

और उस असहनीय दर्द के बावजूद लबों पर मुस्कुराहट आ गयी थी ।

तुम, जो गुलाब की नन्ही पंखुड़ियों की तरह पवित्र,

तुम, जो इतनी कोमल कि कोई देख भी ले तो मैली हो जाओ,

तुम्हें अपनी कोख में लेकर अपने आप पर ही गुमान हो गया था, वो मातृत्व का सुख उस एक पल में ही हो गया,

और अचानक ही अनजान सा डर जिसने मेरे भीतर सरसराहट भर दी ।

मेरी गुड़िया, तुम्हें कैसे बचाऊँगी मैं ?

कैसे मैं तुम्हें भेड़ की खाल ओढ़े उन अपनों से बचाऊँगी ?

हाँ, सच में गुड़िया, गैरों से तो लड़ जाऊंगी , पर अपनों का क्या करुँगी ?

हे ईश्वर इससे तो अच्छा मुझे बेटा ही दे देता ॥

फिर ख्याल आया की मैं खुद भीं तो एक बेटी हूँ,

उस दिन मेरी गुड़िया मैंने खुद से यह वादा किया,

कि मैं तुम्हें अबला नहीं सबला बनाऊंगी ,

मैं तुम्हें इस खूबसूरती के साथ देवी दुर्गा का बल दूंगी ।

मैं तुम्हें चंडी की भाँती असुरों को चीरने की क्षमता दूँगी और मैं तुम्हें काली की तरह संहार की शक्ति दूंगी ।

हाँ मेरी गुड़िया

मैं तुम्हें अबला नहीं सबला बनाऊँगी॥

- तुम्हारी माँ...


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