मेरी मां की कहानी
मेरी मां की कहानी
अपने दुखों से वह उभरी भी नहीं थी
की एक और उभरता हुआ दुख मैं प्रकट हुई...
मुझे देखकर उसके मन में कई तरह के हिलोरे उत्पन्न होने लगी.. उसकी मुस्कुराहट में वेदना का अलग संसार बसा हुआ था। करुणा ऐसा शिथिल हो गया मानो हृदय का स्पंदन गति चली गई।।
चलिए देखें आगे का कारवां...
कुछ इसी तरह जिंदगी चल रही थी बिना सहारे
के। उसकेेेेेे दूध से जब मुझे मिला निजात
तब बारी आई पन्ने द्वारा लगाई गई आग से चपाती खाने का सफर।
अगर उसनेे सभी से पंगा ना लिया होता तो कदाचित पाखंडियो ने उसके जीवन का अंत कर दिया होता।
बच्चों का मुंह देख देख कर उसनेेेे अपने 10 साल काट दिए। जैसी मेरी मुख पे निवाला जाता उसको देख कर ही उसके निस्तेज मुख पर आत्म संतुष्टि की लालिमा छा जाती।
सूर्य फिर गगन पथ का रास्ता लिए हुए विश्राम की ओर चला जाता और वह हर शाम को अपने हृदय को आश्वस्त करती हुई सुबह से फिर अपने काम में लग जाती।
मुझे अपने आंचल में छुपा कर सर्दी को मात देने वाली उसकी कितनी रातें बिना चादर की गुजरी।
हद तो तब हो जाती जब उसका चूल्हा भी उस दिन का बेसब्री से इंतजार करता जब उसके घरौंदे में लकड़ी हो ... प्लेट में ताजी रोटियां हो गाय की ताजी
दूध हो... पर उसके चूल्हे चौकी की किस्मत इतनी भी अच्छी नहीं थी..
अब उसका मन किसी भी आंतरिक अभिलाषा केे योग्य नहीं रह गया था। उसके मन की सारी दुर्बलता सारा शोक सारी वेदना मानो संघर्ष करतेे करते हृदय में कहीं लुप्त हो गई। उसकी जगह उस आत्मबल का उदय हुआ जो विपत्ति को शौक से बुलाता है...
उस समय यह श्लोक सटीक बैठताा
"बुलाने का मगर जाने को नहीं"
वह सुबह से रात तक काम में लगी रहती। अपने काम में संलग्न रहना उसका सबसे रोचक कार्य था। अब उसने सारी वेदना शोक और विधि काा निर्मम प्रहार सब उसने आने वाले समय के हाथों में सौंप दिया और फिर सेे अपने काम में संलग्न हो गई।
