एक ख़त माँ के नाम
एक ख़त माँ के नाम
बस से उतरते ही मुझे मेरे कदम इतने भारी लगने लगे कि मानो दोनों पाँवों पर 100 किलो लोहा बांध दिया हो। हल्की ठंड थी, मौसम सुहाना था, शहर नैनीताल था पर फिर भी मेरे चेहरे पे बारह बजे हुए थे। लोग इस जगह आते ही ख़ुशी की अनुभूति करने लगते हैं और मैं जैसे जैसे मंज़िल की ओर बढ़ रहा था, वैसे वैसे मेरा शरीर सुन्न पड़ता जा रहा था। मंज़िल थी जवान राघव रावत का घर जो कि महज़ 25 वर्ष की उम्र में अपने वतन की हिफाज़त में शहीद हो चुका था। मैं उससे 3 साल बड़ा था और उसका कमांडिंग ऑफिसर था जब वो कश्मीर में आतंकवादियों से लोहा लेते हुए शहीद हुआ। आतंकवादियों को तो हमने मार गिराया पर साथ ही वीर योद्धा राघव को हमने खो दिया। इतनी कम उम्र में दिखाई उसकी जांबाज़ी से मैं इतना प्रभावित हुआ कि मुझे उसके व्यक्तिगत जीवन के बारे में जानने की चाह उठी। उसके पार्थिव शरीर और उसके सामान को पूरे सम्मान से घर भेजने से पहले मैंने खुद हर एक चीज़ की जांच की और फिर भेजा।
आज 6 महीने हो चुके थे और अब मैं भी छुट्टी जा रहा था। पर पिछले 6 महीनों में मुझे सिर्फ एक ही बात रह रह के सताए जा रही थी और उसी के लिए मैने राघव के घर जाने की ठानी।
मैं राघव की माताजी से मिलना चाहता था और उन्हें कुछ उनकी अमानत सौंपना चाहता था जो मैंने उस वक़्त राघव के सामान के साथ नहीं भेजी थी।
राघव के घर पहुंचते ही मैंने उसकी माताजी को अपना तार्रुफ़ करवाया। मुझे डर था कि कहीं मैं उनके बेटे के चले जाने के ग़म को फिर से न उभार दूँ इसलिए मैं उनसे धीरे धीरे घुमा फिरा के इधर उधर की बात करने लगा। बातों बातों में पता चला कि राघव के पिता भी भारतीय आर्मी में थे और उन्होंने भी अपना जीवन अपने वतन पे क़ुर्बान कर दिया था। ये जानकर मेरे हौसले और पस्त हो गए। पर मैंने ये भी पाया कि राघव की माताजी की आँखों में पीड़ा तो थी इन सब चीजों की पर साथ ही साथ उनकी आँखों में एक चमक भी थी जब वो अपने पति और बेटे की बात कर रहीं थी।
मैंने उनको राघव की जांबाज़ी के किस्से सुनाए और किस तरह उसने अपने साथियों की जान बचाने के लिए अपनी जान पर खेलकर आतंकवादियों से लोहा लिया ये भी बताया। राघव की माताजी की शारीरिक भाषा बता रही थी कि अपने बच्चे की वीरगाथा पर उन्हें असीमित गर्व हो रहा था।
मैने क्षमा प्रार्थी होकर उनके सम्मुख एक बात रखनी चाही। उन्होंने मुझे बिना किसी ग्लानि के बात कहने को कहा। मैंने उन्हें बताया कि राघव के सामान में एक ख़त भी था जो आपके नाम था पर पढ़ने के बाद मुझे आपको भिजवाने की हिम्मत नहीं हुई। पर यकीन मानिए मेरा और कोई इरादा नहीं था। और मैं शायद आपको वो ख़त पढ़ता हुआ देख भी न पाऊँ इसलिए मुझे जाने की अनुमति भी दीजिए। मैंने अपनी जेब से वो ख़त निकाला और उनको पकड़ा दिया। मैं जाने के लिए खड़ा हुआ तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे बिठा दिया। और वो बिना आवाज़ किये ख़त पढ़ने लगीं। वो जैसे जैसे ख़त पढ़ रहीं थी वैसे वैसे मेरे ज़हन में भी हर एक शब्द दोबारा अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा था।
" माँ प्रणाम,
आप अक्सर ये शिकायत करते हो कि मैं फोन नहीं करता, कहते हो कि एक माँ इधर भी है, भारत माँ के अलावा।
इसलिए पहली बार कोई ख़त लिख रहा हूँ आपको। जितनी हैरानी आपको हो रही है उतनी ही मुझे भी है। फोन पर बात करना और ख़त लिखना, दोनों में ज़मीन आसमान का अंतर है। पर ये ख़त कुछ खास है, खास इसलिए क्योंकि ये मेरी गैरमौजूदगी में आपसे मेरी वक़ालत करेगा। ये अपने अंदर वो सब लिए हुए है जो मैंने आपको कभी बताया नहीं। ऐसा कुछ जरूरी भी नहीं है पर ये आपको मेरा 'ज़ुबान लड़ाना' याद दिलाएगा।
याद है जब बचपन में आप मुझे समझाती थी कि स्कूल में अपने से होशियार बच्चों के साथ आगे बैठा करो तो मैं हाँ में सिर हिला देता था पर फिर ये सोचता था कि होशियार बच्चों की माँ भी तो उन्हें ऐसा ही बोलती होंगी, फिर वो मुझे अपने साथ क्यों बिठाएंगे? ऐसा सोचकर मैं फिर रोज़ की तरह अपने उन्हीं दोस्तों के साथ बैठ जाता था।
यहाँ सरहद पर भी मैं ऐसा ही सोचता हूँ कि आपकी तरह हर किसी जवान की माँ उसके लिए फिक्रमंद रहती होगी, उसकी सलामती के लिए भगवान से प्रार्थना करती होंगी। और ये सोचकर मैं खुद दूसरों से आगे रहने की कोशिश करता हूँ ताकि दुश्मन से पहला सामना मेरा हो।
आपको याद है, जब मैं थोड़ा और बड़ा हुआ तो आप मेरी शरारत करने पर नाराज़ हो जाते थे और मुझे पड़ोस के शर्मा अंकल के बेटे की तरह समझदार बनने को कहते थे। मैं जब फिर भी नहीं मानता था तो आप मुझे चिढ़ाने के लिए झूठेमुँह कहते थे कि मैं आपका बेटा नहीं हूँ। तब ये सुन के मुझे बहुत बुरा लगता था और मैं चाहते हुए भी शरारत नहीं करता था।
आज यहाँ बॉर्डर पर होते हुए मुझे अक्सर ये ख्याल आता है कि आपसे उन चिढ़ाए जाने वाले पलों का बदला लूँ और बोलूं की आप मेरी माँ नहीं हो। मैं आपकी बिल्कुल भी फ़िक्र नहीं करता और न ही बात मानूँगा। मेरी माँ तो बस भारत माँ हैं और मैं इन्ही के लिए क़ुर्बान हो जाऊंगा।
आप को फोन पे तो ये बोल नहीं सकता पर जब आप ख़त पढ़कर ये जान जाओगे और बुरा मानोगे तो भगवान से प्रार्थना करना कि वो अगले जन्म में मुझे आपका ही बेटा बनाये ताकि फिर आप मुझसे इस बात का बदला ले सको।
आशा करता हूँ कि इस ख़त को पढ़ते वक्त आपको मुझ पे ज़रूर गर्व होगा और आप इस ख़त का और अपना हमेशा ख्याल रखोगे।
आपका,
रघु
मैं सिर झुकाए बैठा हुआ बीच बीच में माताजी की प्रतिक्रियाएं देखने के लिए नज़रें ऊपर कर देख रहा था। झर झर बहते आंसूओं की धारा अपने चरम पर थी और फिर उन्होंने अपने बेटे की लिखाई को चूमते हुए रुंवासी आवाज़ में बोला ," ये लड़का कभी नहीं सुधरेगा।"
ये सुन मेरी आँखें भी डबडबा गयी। गला भी भर आया था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ? क्या बोलूं?
"आपने मेरे बेटे का ख़त मुझ तक पहुंचाने के लिए यहाँ आने का कष्ट उठाया। मैं आपकी किस तरह खातिरदारी करूँ? मैं आपका जितना भी धन्यवाद करूँ कम है।" राघव की माताजी ने तहे-दिल से कहा।
उनके ये व्यक्तव्य सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। मैं जिस महिला को सांत्वना देने के लिए आया था उसने इतनी दरियादिली से मेरे डगमगाते हौसले को एक पल में नई शक्ति और ऊर्जा से भर दिया। मुझे अनुभूति हुई कि सरहद पर खड़ा हर एक जवान इसलिए भी मज़बूती से खड़ा है क्योंकि उसके पीछे एक ऐसी माँ, एक ऐसा पिता, एक ऐसा भाई, बहन या बीवी है जो उसे हर पल हौसला देते है अपने घर से पहले अपने देश की रक्षा करने का। मेरा जी चाहा कि ऐसे वीर पुत्र की महावीर माँ को सलूट करूँ पर फिर मैं उनके पाँव छू कर उनसे आशीर्वाद और उनका फ़ोन नंबर ले आया।
अब हर 1-2 महीने में मैं उनसे बात कर लेता हूँ। और अगर मैं भूल भी जाऊँ तो वो बिना झिझक मुझे फोन कर लेती हैं और चिढ़ाते हुए कहती है, " एक माँ इधर भी है, सेवा नहीं तो कम से कम फोन तो कर लिया कर ?"
P.S: ये कहानी समर्पित है हर उस वीर सपूत को और उसके परिवारवालों को जो बिना किसी डर और बिना किसी मोह के पीढ़ी दर पीढ़ी भारत माँ की हिफाज़त में तैनात हैं।
