दो किनारे
दो किनारे
किस्सा ये किनारों का है। नदिया का नहीं, दो किनारों का है और कहानी एक किनारे की है। सुना था कि इस किनारे ने उस किनारे से मिलने की कोशिश की थी, जो नाकामयाब हुई थी। लोगों ने कहा, “पागल है ये किनारा। बेवक़ूफ़ है। क्या उसे इतना भी पता नहीं कि दो किनारे कभी मिल नहीं सकते।” बहुत सारे लोग हंसे भी, यहां तक कि वो वाला किनारा भी।
सुनकर ये किस्सा पूछा मैंने, इस किनारे से, "क्या है इस किस्से की असली कहानी"। हंसकर बोला, ये किनारा, "कहानी मेरी है नादानी। उस किनारे की दीवानी। बहती है जीवन की नदिया। इस नदिया के हम दो किनारे हैं। हर मोड़ पर मैं जिंदगी के साथ बहता गया। हर मोड़ पर जिंदगी को सहता गया। सुना था हमेशा की नदिया के दो किनारे होते हैं। वक़्त की गहराईयों में जो खोते हैं। हमेशा ढूंढ़ता मैं दूसरे किनारे को। पर जब भी मैं देखता तो दिखाई देती सिर्फ जीवन नदिया, जो जीवन को लिए बही जा रही है। दूसरा छोर नजर आता ही नहीं था। बस, मैं आगे बढ़ता गया। चलने का जूनून सा चढ़ता गया। पर आया एक ऐसा मोड़, जहां मुझे एक किनारा दिखाई दिया। बिल्कुल मुझ सा। कोशिश की मैंने जरूर उसे जानने की। जितना उसे जाना उतना मुझे करार आया। जैसे ही उसने सुना मेरे बारे में दूर से ही बोला कि ये पागलपन है। क्या तुम्हें नहीं पता हम कभी मिल नहीं सकते। रवैया काफी सख्त था। कहा उसने, “तुम बस एक राही हो। हजारों आते हैं और जाते हैं। मैं एक किनारा हूं, जहां लोग सहारे के लिए आते हैं या कुछ देर के लिए रुकते हैं। सुनकर बात उस किनारे की टूट सा ही गया दिल मेरा।"
पूछा फिर मैंने इस किनारे से की सब कुछ जानते हुए भी मिलना चाहता था तू उस किनारे से? हंसा ये किनारा फिर से। बोला, "यही तो असली कहानी है। हां,जरूर उस किनारे का मैं भी मुरीद था। पर मैं भी किनारा था। जानता था मैं कि हम कभी मिल नहीं सकते। इसलिए नहीं कि हमारे बीच में बड़ी नदियां बहती हैं।इसलिए क्योंकी हम किनारे हैं। मिलने के लिए किसी एक को अपना वजूद छोड़ना पड़ता। फ़़ना हो जाते हम दोनों ही इस तरह से। परवाह नहीं थी मुझे किसी भी चीज की। मैं अपना वजूद छोड़ भी देता, पर हमारा मिलना भी उसका वजूद मिटा देता। वो भी किनारा नहीं रहता, कुछ और ही बन जाता। और मुझे ये हरगिज मंजूर नहीं था। मुझे उसकी चाहत इसलिए थी कि वो एक किनारा था। कईयों का सहारा था। मुझ-सा ही सख्त था। अपने होने पर कायम था। फिर मेरी चाहत उसकी बर्बादी की वजह क्यों बनने देता? क्या कभी तुमने ये सोचा। मैं उससे मिलना चाहता था पर पता था कि नहीं मिल सकता तो साथ चलना चाहता था। दर्द तो इस बात का था कि उसने मुझे पहचाना ही नहीं। उसे लगा मैं भी एक राही हूँ।बस जान ही लेता मुझे। समझता कि मैं भी एक किनारा हूँ। बिलकुल उस जैसा। उसकी तरह सहारा देनेवाला। हरियाली आये पत्थर सा, बस नदिया के साथ बहते जानेवाला। या यूं कहो नदिया को बहानेवाला। बस जान ही लेता मुझे। दूर से ही प्यार की दो बातें करता मुझसे। जब मन होता रुकने का तो चलने की याद दिलाता मुझे। किसने कहा कि मिलना ही कामयाबी की निशानी हैं। ना होते हुए होना भी तो एक अलग ही कहानी है। चलते हम अपनी-अपनी जिंदगी लिए। कभी सुनता उसकी दास्तान तो कभी अपनी सुनाता। हंसते सुनकर किस्से राहियों के। संभालते एक दूसरे को तूफानी यादों से। हौंसला देते अपने-अपने मंजिल तक पहुंचने का। चाहे कितने भी मोड़ आते, आती कितनी भी दूरियां, फिर भी चलते मुस्कुराते हुए। हो जाता मैं खुश उसे अपनी राह चलती देख। उसे चलता देख मुझमें भी तो हिम्मत आ जाती।"
सुनकर ये पूछा मैंने, "क्या अब नहीं चलोगे तुम। थम जाओगे यहीं? " "बिलकुल नहीं। कुछ भी हो चलना और बस चलना ही मैंने सीखा है। चाहूं भी तो मैं थम नहीं सकता। चलूंगा तो मैं अब भी। बस दिल में दर्द रहेगा इस बात का कि उसने मुझे जाना नहीं। अपना कभी माना नहीं। समझा ही नहीं वो कि मैं भी एक किनारा हूं। दर्द हुआ जब उसने मुझे राही समझा। चलो, कोई नहीं। आएगा जब मोड़ नया, मुड़ जाऊंगा मैं भी। पर खुश भी रहूंगा, ये सोचकर कि कभी मुझे भी कोई किनारा दिखा था, जो बिलकुल मुझसा था। पता नहीं जब नए मोड़ आएंगे तो मैं उसे देख भी पाउंगा या नहीं। पर हमेशा उसकी कामयाबी चाहूंगा। मिलेंगे जरूर हम उस समंदर में, जहां सारी नदियां आकर बस जाती हैं और सारे किनारे मिल ही जाते हैं। बस, उस समंदर की चाह में चलता रहूंगा, बस चलता रहूंगा।"
