पूर्णिमा पाटील एकलव्य स्वरूप

Drama Horror

4.0  

पूर्णिमा पाटील एकलव्य स्वरूप

Drama Horror

डर की पहचान एक साये ने करवाईं

डर की पहचान एक साये ने करवाईं

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   पता नहीं ऐसे कितने लोग हैं जो भूत-प्रेत पर भरोसा करते होंगे, मैं ऐसी कई घटनाओं से वाकिफ हुई हूँ की उन बातों के उपर में पहले भरोसा नहीं करती थी। लेकिन जब खुद पर बीतती है तब हम खुद यह तय नहीं कर पाते के हमारे साथ ये घटनाएं हुई हैं या हमने उस स्थिति का सामना किया होता है।

तो बात है २००६ की में ९ वी कक्षा में पढ़ती थी।

दीवाली वेकेशन में अपने बुआ के गांव गई थी।

महाराष्ट्र का एक छोटा गांव वायपुर इस गांव में दत्त मंदिर है, उस गांव में हर अमावस्या और पूर्णिमा के दिन शरीर के अंदर छिपे चुड़ैल, डायन या सायों को निकाल ने की प्रथा थी। मैंने किताबों में कई प्रथाओं के बारे में सूना था लेकिन इस प्रथा के बारे में सुनकर मेरी हंसी नहीं रुक रही थी।

इस गांव में शाम के ७ बजे के बाद कोई घर से बहार नहीं निकलता था क्योंकि रात में वहां की गलियों में सायों का राज चलता था। उस समय गांव में शौचालय नहीं हुआ करते थे लेकिन पब्लिक शौचालय जरूर होते। अब हुआ यूं की मुझे शाम को पेट में गड़बड़ हुई मैंने बुआ की लड़की को कहा मुझे शौचालय जाना है तो उसने मुझे कहा, "तुम्हें इस वक्त जाना है इस वक्त कितना भी जरूरी हो कोई घर से बहार नहीं निकलता। मैंने कहा तुम लोग पागल हो। ऐसा कुछ नहीं होता। उसको मैंने ताने मार मार कर उकसाया और अपने साथ आने को तैयार कर लिया।

अब हम दोनों जा ही रहे थे तो बुआ ने कहा ,"तुम दोनों जा रहे हो लेकिन गांव के घर या किसी भी जगह को छूना मत 

यहां सायों का राज़ होता है अकसर, संभल कर जाना!"

मैंने बुआ की बात को हंसी में टालकर निकल गई।

जब हम पहुंचे तो मैं शौचालय में गई जाते ही दरवाजा बंद हो गया मुझे लगा बुआ की लड़की ने किया।

फिर दरवाजा खटखटाने की आवाज़ शुरू हुई।

मैंने सोचा ये शायद घबरा रही है इसलिए दरवाजा खटखटा रही है। जब मेरा काम खत्म हुआ मैंने देखा बुआ की लड़की दूर खड़ी थी। उसको मैंने कहा," तुझे पता है में डरती नहीं हूँ, फिर दरवाजा इतना जोर से क्यूं खटखटा रही थी।"

बुआ की लड़की ने कहा मैं?," मैंने कोई दरवाजा नहीं खटखटाया "फिर हम दोनों ने एक दूसरे की तरफ देखा और जितना जोर लगाकर भाग सकते थे हम भागे वहां से।

अगले दिन पूर्णिमा थी तो दत्त मंदिर में यहां आरती पूजा और कई लोगों की भीड़, दूर दूर से अलग-अलग गांवों से लोगों के झुंड आए थे कोई साये से पीछा छुड़ाने आया था तो कोई चुड़ैल डायन से पीछा छुड़ाने।

यहां के जो पंडित थे पेरानॉर्मल एक्सपर्ट थे। वह सायोंं के चुंगल में फंसे हुए लोगों से बात करते, और उन्हें उनके शरीर से निकल जाने को कहते ।

अगर कोई ना माने तो उनके आगे के ललाट के बाल जोर से खींचते और बाल तोड़कर उन्हें सजा देते और कहते," जाओ इसके शरीर से "यह सब ड्रामा देखकर मुझे हंसी आ रही थी।" पंडित ने मेरी हंसी को सुन लिया, वह भी शांति से मेरी तरफ देखने लगे, "और बोले, "तुम! हाँ तुम! उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते भगवान की कृपा है इस पर" मैं बोली, "मैंने कुछ नहीं किया!" पंडित फिर हंसा और बोला," तुम्हें नहीं कह रहा तुम्हारे पीछे जो आदमी है उसे कह रहा हूं" और मैंने पीछे मुड़कर देखा उस आदमी की हंसी एकदम अजीबोगरीब और ऐसे हँस रहा था जाने उसकी बरसों की इच्छा पूर्ति होने वाली हों उस पंडित ने कोई मंत्र बोला और राख उस आदमी पर फेंक दी। वह आदमी मंदिर के पास कुआँ था उसमें जाकर कूद गया। ," यह वाक्या ऐसा था के मैं यह तय नहीं कर पा रही थी के आखिर यह सब हो क्या रहा था।

उस पंडित ने मेरे हाथ में मौली का धागा बांधा और कहा, "यह धागा तुम अपने कुलदेवता के मंदिर जाकर उनके चरणों में चढ़ा देना।" 

मैं बुआ के घर लौटी लेकिन मेरे अंदर सवालों का बवंडर मंडरा रहा था उम्र भी ऐसी थी के हर बात में बाल की खाल उड़ेलने की आदत सी थी, "मैंने बुआ को सारी बात बताई" बुआ बोली, "पंडित ने जैसा कहा वैसा करना"

मैंने सर हिला कर हां तो बोल दिया लेकिन मेरे खुराफाती दिमाग ने वह मौली छोड़ने की ठान ली मैंने सोचा एक बार देख तो ले क्या होता है, मैंने मौली छोड़ दी। और रात के वक्त मैं बुआ फूफाजी और उनके बच्चे सब बातें कर रहे थे।

रात के सन्नाटे में कुत्तों के रोने की आवाज़, गांव की सड़कें सुनसान मानो गांव में कोई रहता ना हो। मैंने बरामदे पर उसी आदमी का साया देखा।

मैंने बुआ को कहा मंदिर में यही आदमी था मेरे पीछे।

बुआ ने कहा," हमें कोई नहीं दिख रहा" और तुमने धागा पहना है तुम्हें वो कैसे दिख रहा है?"

मैंने कहा," अ...वो ..मैंने वो बुआ मैंने धागा छोड़ दिया।"

सब घबरा गए और बुआ डांटते हुए," ये आज के बच्चे किसी की नहीं सुनते" एक तरफ वो आदमी का साया मानो मेरे सामने आ रहा था नजदीक आता गया, आता गया और मैं डर के मारे बेहोश। बुआ मुझे उठाकर घर के अंदर ले गई और फिर उन्हें वह धागा दिखा उन्होंने फिर से मेरे हाथ में बांध दिया। मुझे तेज बुखार चढ़ गया और मध्य रात्रि में मेरी निंद खुली उस आदमी का साया बुआ के घर के बरामदे में ही खड़ा था।

उस दिन मैंने डर क्या होता है उसका अहसास किया।

फिर दूसरे ही दिन मैंने घर जाने की जिद की फूफाजी मुझे घर छोड़ने अहमदाबाद आए। मैं मेरी मां से ऐसे लिपट गई के जैसे में अब सुरक्षित जगह पहुंच गई हूँ।

घर आने के बाद भी मुझे उस आदमी का साया फिर से दिखाई देने लगा। फिर बीमारी हुईं, बुखार से तपने लगी। दो दिन बाद बुआ का फोन आया तब बुआ ने सारे वाक्या का ज़िक्र किया, और मेरे हाथ की मौली को कुलदेवता के मंदिर में चढ़ाने को कहा। हम सब कुलदेवता के मंदिर गए धागे को विधि पूर्वक कुलदेवता के चरणों में अर्पण किया उसके बाद मुझे उस आदमी का साया नहीं दिखा।

लेकिन आज भी में वैसी ही हूँ मुझे किसी से डर नहीं लगता और वही आदत आज भी है, बाल की खाल निकालने की।

हर चीज़ को तर्क से देखती हूं परखती हूँ। कितनी सच्चाई है उसे जांचती हूँ।


इस वाक्या को लिखते लिखते मेरे रौंगटे खड़े हो गए लेकिन में डरती नहीं हूँ सच में..........



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