चाँद - एक सच्चा मित्र
चाँद - एक सच्चा मित्र
छटक चांदनी रात है। मेरे गांव की हवा में आज भी शुद्धता बाकी है।
आज कई सालों बाद गाँव आना हुआ। मैं मेरे घर के आंगन के बाहर, खाट का बिछोना बिछाकर चांदनी ओढ़कर लेटा हुआ हूँ।
ये नीम का वही पुराना पेड़ है, जिसके पीछे से झांककर चाँद ने मुझसे लुका-छुपी करने की अपनी पुरानी आदत आज भी नहीं छोड़ी है।
चाँद से मेरा यह कितना पुराना ताल्लुख है जो वक़्त के साथ और गहराता ही जा रहा है।
मैं अपने जीवन की इस स्वार्थी दौड़ में न जाने कितनी दूर निकल आया हूँ। मेरे इस सच्चे साथी चाँद को कितने ही मोड़ों पर विस्मृत करता आया
हूँ, परन्तु, चाँद अपनी दोस्ती का कर्तव्य नहीं भूलता।
इसने बचपन से देखा है मुझे - ख्वाब बुनते हुए, फिर उनके पीछे दौड़ते हुए भी। मुस्कुराता ज़रूर होगा मेरी इस दिग्भ्रान्त दौड़ को देखकर, पर साथ कभी नहीं छोड़ता।
मैंने जब-जब थककर सांस लेना चाही, जब-जब खुद को वापस पाने की चेष्टा भी की, जीवन का अदृश्य सत्य लेकर चाँद उपस्थित हुआ है। वो मेरी तरह स्वार्थी नहीं।
श्रीरामचरितमानस में तुलसी की एक चौपाई याद आ रही है:
" धीरज धर्म मित्र अरु नारी।
आपद काल परिखिअहिं चारी।। "