बोल उठा गुम्बद
बोल उठा गुम्बद


छोटा गुम्बद बहुत डरा हुआ था, बड़े गुम्बद से पूछने लगा “बड़े मियाँ, क्या लगता है आपको, आज हम तोड़ दिए जाएंगें”?
बड़े गुम्बद ने गहरी साँस लेते हुए उत्तर दिया “टूट तो हम कब के चुके हैं, जब आजान होती है और कोई नमाज़ पढ़ने नहीं आता”।
“ये लो बड़े मियाँ......किसी ने हम पर गेरुआ रंग का झंडा फहरा दिया”
“छोटे, रंगों का कोई धर्म नहीं होता। झंडे की सिलाई देख, जुम्मन दर्जी की ही लगती है, इसको अगर तह कर के सही से सिल दिया जाये तो हमारे धर्म-ग्रंथ की जिल्द बन सकती है”।
“इन्होनें तो हमारे धर्म-ग्रन्थों को भी नहीं छोड़ा, वो देखो उसे भी जला रहे हैं “।
“छोटे! ये तो कब से ताख पर रखे-रखे खुद को नज़र-अंदाज होने की आग में जल रहे थे। इनके जलाने से क्या होता है, ये ग्रंथ लोगों के दिलों में हमेशा ज़िंदा रहेगें और अपना अलख जलाते रहेगें”।
“काफी दर्द हों रहा है बड़े
मियाँ , कितनी बेरहमी से सबने हम पर वार कर के तोड़ दिया”।
“खुश हो जा छोटे, रघु राज-मिस्त्री फिर आएगा हम जैसा ही गुंबद बनाने क्योंकि उसके अलावा ऐसा गुंबद इस इलाके में कोई नहीं बनाता। इसी बहाने उस जैसे कुछ गरीब मजदूरों को भी रोजगार मिल जाएगा। कुछ लोग इस काम के लिए दान कर के पुण्य के भागी बनेगें।
“रघु राज मिस्त्री! पर वो क्यूँ आए ? वो तो इन्हीं के धर्म का है?
“नहीं छोटे, गरीब मेहनतकश लोगों का कोई धर्म नहीं होता। उनके लिए तो उनका कर्म ही उनकी जाति और उनका ईमान ही उनका धर्म होता है। ये तोड़-फोड़ और अलगाववाद मतलबपरस्त लोगों का धर्म है - ‘दंगाई धर्म’ ”।
“अब हमारा क्या होगा बड़े मियाँ”?
“होगा क्या ... अब हमारी ईंट-पत्थरें किसी नव-निर्माणाधीन मंदिर के ज़मीन-भराई के काम आ जाएँगी और आज जिन लोगों ने हमें तोड़ा है, वही कल को हमारी पुजा करेंगें”।