भूल कहां हुई
भूल कहां हुई
मैंने उसकी, बेटे के न होने के कारण बहती हुई आँखों के आँसुओं की उष्णता महसूस की थी। उसके दर्द की लहर की अपने दिल में हलचल देखी थी। परन्तु उस स्वाभिमानी देवी ने अपने प्रारब्ध को स्वीकार कर हँसते-हँसते अपनी पीड़ा को पीते हुए जीना सीख लिया था। तथापि मनुष्य आखिर मनुष्य होता है। वह अन्त तक ईश्वरत्व को धारण किए नहीं रह सकता। यदा-कदा पुनः मनुष्यत्व को प्राप्त होता रहता है। उस समय प्रारब्ध से किया गया उसका समझौता खत्म हो जाता है। वह उस समय मात्र एक साधारण मानव होता है, अपनी मानव-मन की समस्त अनुभूतियों , सुख-दुःख और जीवन की कड़वी सच्चाइयों सहित। ऐसे ही महत्वपूर्ण क्षणों में उसकी भी समूची पीड़ा आँखों में घनीभूत हो जाती थीं और उसकी वाणी को भी रूँधा देती थीं। उन कोमल पलों में मुझे हम सबके छः भाई-बहनों के होने पर भगवान पर बहुत गुस्सा आता था। मैं सोचता कि हमारे यहाँ एक भाई कम देकर यदि एक उसकी गोद में दे दिया होता तो कितना अच्छा होता। परन्तु यह मेरे अधिकार में नहीं था इसलिए मैं विवश था। इसलिए मैं सदा उदास रहता था। मैं उसके इस अनकहे दुःख को येन-केन प्रकारेण कम करने का उपाय सोचने लगा। उसे देखते ही मुझे यूँ लगता मानो इस जन्म में चाहे उसका मुझसे कोई निकट का रिश्ता नहीं है, पूर्वजन्म में वह अवश्य मेरी अपनी रही होगी क्योंकि उसको देखते ही मैं अनायास ही उसकी ओर आकर्षित हो जाता था। उसकी हर पीड़ा को पी जाने को उतावला हो उठता। ऐसा लगता कि "हूँ तो मैं उसी का पुत्र लेकिन किन्हीं अदृश्य कारणों से बिछुड़ गया हूँ।" हो सकता है ऐसा मेरे स्वभाव के कारण मुझे लगता हो क्योंकि मैं किसी का भी दुःख देख नहीं सकता हूँ। मैं उसे दूर करने की भरसक कोशिश करता हूँ चाहे इसके लिए मुझे स्वयं को ही दुःख क्यों न सहना पड़े या इसका परिणाम बुरा ही क्यों न हो मेरे अपने के लिए। परन्तु मुझे कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। अतः एक दिन मैं भगवान से प्रार्थना करने लगा कि "तू ही क्यों नहीं उपाय बता देता"। कुछ देर पश्चात् ही मुझे मार्ग मिल गया। मेरी सारी चिन्ता मिट गयी। मैंने मन ही मन अपने आपको उसका दत्तक पुत्र मान लिया और इसी भाव से उसके साथ व्यवहार करने लगा। मैं उसकी एक बेटे की कमी को पूरी करने की अपनी ओर से पूरी चेष्टा करने लगा उसे बिना बताये।
मैंने उसकी भी आँखों को पढ़ा था। मैंने उसकी झरने जैसी खिलखिलाहट और चमकती हुई आँखों से छलकती हुई खुशी के उस पार किसी भाई के न होने के कारण उत्पन्न हुए एकाकीपन की पीड़ा के अथाह खारे जल से परिपूर्ण सागर को भी ठाठें मारते हुए स्पष्ट देख लिया था जो पलकों के अभेद्य बाँध को तोड़कर बाहर तक उफन पड़ने के लिए विकल हो रहा था। उम्र छोटी होने पर भी वह बड़ी समझदार और कड़ी काठी वाली थी। इसीलिए अपने इस असह्य दुःख को आरम्भ से ही ढोती चली आ रही थी और अब तो उसको इस प्रकार अपने से ही अभिनय करने की आदत सी पड़ गयी थी। वह हमेशा प्रकट में तो सबसे हँस कर बात करती और अपने हृदय को समझाती रहती थी परन्तु अकेले में अक्सर उदास रहती थी। मैंने उसकी खुशी के पीछे छिपी ग़म की लम्बी और बहुत गहरी लकीर को देख लिया था। मैंने उसकी खोजी आँखों को बहुत पहले ही भाप लिया था जब वह पहले-पहल यहाँ आई थी।उसकी आँखें हमेशा एक ऐसे लड़के की तलाश में लगी रहती थी जो उसे जी भर कर प्यार करे और उसकी एक सगे भाई की कमी को पूरा कर दे। वह भी उस पर अपनी श्रद्धा और प्यार की सुराही उड़ेलने को बेताब थी।
मैं अच्छे विद्यालय के न होने के कारण पढ़ाई के लिए बचपन से ही अपने घर से दूर रहा हूँ। चौथी कक्षा उत्तीर्ण करने के बाद से ही यहाँ आ गया धा। इसके कारण मुझे अपने भरे-पूरे परिवार का अधिक सानिध्य व प्यार नहीं मिल पाया जिसमें मेरे माता-पिता, दादी माँ, दो बड़ी बहनें तथा तीन छोटे भाई थे। अब बहनों का तो विवाह हो चुका है तथा शुरू से साथ न रहने के कारण भाइयों से भावनात्मक रूप से अधिक नहीं जुड़ सका हूँ और समय के वर्तमान पड़ाव पर जब कार्य की अधिकता के कारण घर से दूर रहना आवश्यक हो गया है, तब माता-पिता से भी अधिक मिलने की सम्भावना कम हो गयी है। अतः मैं भी एक ऐसे ही परिवार की खोज़ में था जो मेरे आस-पास ही कहीं हो और जहाँ मैं अपना एकाकीपन कुछ कम कर सकूँ। अपने ही लोगों का सा प्यार, मान व स्नेह पा सकूँ। ऐसा हो जाने पर मैं भी उन पर अपना सबकुछ न्योछावर कर देने की उत्कंठा रखता था बिना उनके स्वाभिमान को ठेस पहुँचाये। बदले में मुझे कुछ विशेष नहीं चाहिए था। मात्र यही कि वे भी मुझे अपना ही समझें। अपने ही दिल का टुकड़ा तो नहीं, क्योंकि मैं इतना महान तो हूँ नहीं कि हर कोई मुझे अपना समझे, परन्तु उससे कम किसी भी सूरत में नहीं माने और मुझ पर पूर्ण विश्वास करे। मैं भी उन पर पूर्ण विश्वास करूंगा और उनकी, जिस प्रकार मैं अपने माता-पिता (जन्मदाता) और भाई-बहनों (सहोदरोंं) की करता हूँ, प्रत्येक परेशानी और दुःख को अपना मानकर उसे दूर करने की जी-जान से चेष्टा करूंगा, ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय व सरल भाव था। मैं सोचता था कि यदि ऐसा हुआ तो मैं उनमें और अपने में कभी दूसरे होने का भेद-भाव मन में नहीं रखूंगा। सदा उन्हें भी अपने ही परिवार का समझूंगा तथा निष्काम सेवा करूंगा क्योंकि निष्काम भाव से किया गया कार्य सर्वोत्तम और ईश्वर की प्राप्ति करवानेवाला होता है। उससे सत् चित् आनन्द की अनुभूति होती है। इसके विपरीत जहाँ मात्र निज स्वार्थ है वहाँ दुःख ही दुःख है।
इसी खोजबीन में हम दोनों को एक दूसरे का संसर्ग प्राप्त हो गया और हमारी चिर प्रतीक्षा लगभग साथ ही पूरी हो गयी। "मुझे पहली ही दृष्टि में वह अपनी सगी बहन लगी और कब की सूखी पड़ी मेरी प्यार की नदी अचानक हुलस पड़ी।" मुझे लगा कोई तो अपना मिला जो मुझे नहीं चाहेगा तो क्या हुआ कम से कम मेरे दुलार को तो नहीं ठुकरायेगा और मैंने उससे राखी बंधवा ली। और उसने भी बड़े प्यार से मेरे माथे पर कुमकुम का टीका लगाकर अपने हाथों से बर्फी का एक बड़ा सा टुकड़ा मेरे मुँह में देकर मुझे अपना भाई बना लिया।
"वयं सुपुत्राः अमृत्स्य नूनं"- हम सब एक ही परमात्मा के अंश हैं।"
