बेटे की जीवन संगिनी
बेटे की जीवन संगिनी
"ज़्यादा पढ़ी लिखी बहू लाओगी, तो पैर दबाना तो दूर, एक कप चाय बना कर भी नहीं देगी।" सरला ने फीकी सी मुस्कान के साथ लड़की की फ़ोटो पर एक नज़र डाली और अपनी सहेली मिथिलेश को सलाह दे डाली।
मिथिलेश ने दोबारा लड़की की फ़ोटो हाथ में ली, ध्यान से देखा। लड़की के चेहरे पर आत्मविश्वास में लिपटी हुई मुस्कान थी। आधुनिक परिधान लड़की के बहिर्मुखी होने का परिचय दे रहे थे। उसके गले में लटका आइडेंटिटी कार्ड उसे कामकाजी होने का प्रमाण दे रहा था।
मिथिलेश कहा," सरला, शायद तुम ठीक कह रही हो। बहू ज़्यादा पढ़ी लिखी हो, ऊपर से नौकरी भी करती हो तो उससे किसी प्रकार की फिज़िकल सेवा की उम्मीद रखना बेकार है। पर बहू बेटे के मानसिक स्तर के अनुसार होनी चाहिए। जिससे बेटा और बहू मिल कर एक और एक ग्यारह हो सकें। अपनी सेवा कराने के लिये मैं किसी छोटी शहर की, कम पढ़ी लिखी लड़की लाकर क्या करूँगी? मुझे कितने दिन जीना है भला? मुझे बेटे के लिये जीवन संगिनी चाहिये, न कि अपने लिये तेल मालिश करने वाली बहू।"
सरला ने मिथिलेश के हाथ से लड़की की फ़ोटो ले ली। उनको अपनी बहू का ख़्याल आ गया था, जिसे उनकी सेवा में छोड़कर उनका बेटा दिल्ली चला गया था। उनकी बहू ज़्यादा पढ़ी लिखी, स्मार्ट नहीं थी। बहुत घरेलू थी। साल में सिर्फ़ दो बार ही उनका लड़का घर आता था। उड़ती उड़ती ख़बर उन्हें ये मिलती रहती थी कि वो वहाँ किसी के साथ लिव-इन रिलेशन में रहता है। सरला अपनी बहू की आँखों में प्रतीक्षा का मौन पसरा हुआ देखकर द्रवित हो जाती थीं। उन्हें उम्मीद थी एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा।
सरला ने एक ठंडी साँस छोड़ते हुये कहा," शायद तुम सही ही कह रही हो। बहू, हमारा ख़याल रखे चाहे न रखे। वो ख़ुद अपने पैरों पर खड़ी हो यही बहुत है आजकल की दुनिया में। वो इस लायक तो होनी ही चाहिये कि अपना ख़्याल ख़ुद रख सके।"