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pratibha pande

Inspirational

4  

pratibha pande

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बारिश की एक शाम

बारिश की एक शाम

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"दुकान से निकला तो बारिश हल्की थी। जल्दी घर पहुँचने को छोटा रास्ता लिया तो एकदम बेकाबू हो गई। एक छोटे से शेड के नीचे खड़ा हूँ । दूर दूर तक कोई आटो वाटो नहीं है। तुम चिन्ता मत करना और.. और....कट गया लगता है।" पंडित मिश्रा ने गुस्से से पहले फोन को और फिर पागल हुई जा रही बारिश को देखा। पान की दुकान के आगे बने उस शेड के नीचे खड़े रहना बारिश से बचने का भ्रम मात्र था। वहाँ रखी बैंच पर उन्होने कपड़ा फेरा और बैठ गये।

 शेड के नीचे एक और इन्सान की आमद हुई।आने वाले ने अपनी जाली टोपी निकालकर सर और मुंह को गमछे से पोंछते हुए मिश्रा से पूछा। "आप कब से है यहाँ?"


"हम तो हमेशा से ही थे ।आप बाद में आये" मिश्रा धीरे से बुदबुदाये।


 "जी, कुछ कहा आपने? उनके चेहरे के भाव भाँपने की आनेवाले ने कोशिश की । 


"जी नही" बैंच में और पीछे खसकते हुए पानी से बचने का उपक्रम करते हुए मिश्रा ने उखड़ा सा जवाब दिया। हालाँकि इस कोशिश का कोई फायदा था नहीं क्यों कि बारिश पूरे हक़ के साथ शेड में घुसी चली आ रही थी।


"आपको कहाँ जाना है?" कुछ पल की चुप्पी के बाद आनेवाले ने फिर बात का सिरा पकड़ा।


"सुभाष नगर , और आप शायद कुन्दन नगर जा रहे हैं। वो तो पास ही है" आनेवाले के चेहरे का मुआयना करते मिश्रा धीरे से बोले।


"जी..जी, आपने कैसे अंदाज लगाया?" आनेवाले की आवाज मे अचकचाहट थी और थोड़ी असहजता भी। मिश्रा के मुआयने को वो भी ताड़ रहे थे।


" वो छोड़िये। आप कुन्दन नगर के मौलवी हैं ना?"


"मौलवी मेरे अब्बा थे, मैं तो वकील हूँ। क्या हम एक दूसरे को जानते है?" मिश्रा को पहचानने की कोशिश में वकील उन्हें ध्यान से देखने लगे। इस कोशिश में उन्होंने बैंच पर बची हुई छोटी सी जगह को भी देखा पर मिश्रा ने खसकने की कोई मंशा नहीं दिखाई।


"पहले मेरा परिवार कुन्दन नगर में ही रहता था।" मिश्रा धीरे से बोले। 


बारिश का शोर कुुछ धीमा हुआ जैसे दोनों की बातचीत पर उसने भी कान लगा रखे हों।


"अच्छा! कहाँ? कब?" 


"ये जानने से क्या फायदा वकील साहब! मैं पंद्रह साल का था जब एक शाम कुछ लोगों ने हमारे घरों पर पत्थरबाजी और तोड़ फोड़ कर दी थी ।उस हादसे के बाद रातों रात हम माँ के साथ नाना के घर सुभाष नगर चले गये और बाद में दिल्ली जाकर बस गये और..और.." मिश्रा हाँफने लगे थे।

" हाँ..बलवाइयों ने आपसी रंजिश के चलते कुछ घरों में तोड़फोड़ की थी। याद है हल्का सा।"

"कुछ घर नहीं साहब! कुछ खास घर..खैर छोड़िये। चालीस साल हो गये, पर वहाँ के गली मुहल्लों की याद अभी तक ताज़ा है।" मिश्रा ने भर आये गले को ख़ारिज करने के लिये जोर से खंखारा।


शेड में कुछ देर को चुप्पी छा गई। बारिश को चुप्पी अच्छी नहीं लगी तो शेड की छत पर और जोरों से आवाज़ कर बरसने लगी।  


 "ओहो! बहुत बुरा समय था वो। मैं भी इसी उम्र के आसपास था। अब्बा ने औरतों बच्चों को मस्जिद में कई दिनों तक पनाह भी दी। बाद में उनके बर्बाद हुए घरों को बनवाने में भी साथ दिया। बवाली सब बाहर के थे पर उनके आपसी झगड़े का खमियाजा बेगुनाहों ने भरा।" एक साँस में बोलकर वकील ने चेहरा पोछा।


" बैठ जाइये।" मिश्रा खसक गये।


"शुक्रिया" छोटी जगह में समाने की कोशिश करते हुए वकील बोले।


" यहाँ आता हूँ तो हर बार सोचता हूँ कि एक चक्कर वहाँ का लगा लूँ पर.."  आवाज की हताशा को छिपाने के लिये मिश्रा पानी से भरी ज़मीन को बेवजह पैरों से कुरेदने लगे। 


अपना शोर कम करके दोनों की बातचीत में बारिश ने फिर कान लगा लिये थे।


"जी...जी समझ सकता हूँ ।वैसे कुन्दन नगर में आप किस गली मे रहते थे?" चेहरे के मुआयने की बारी अब वकील की थी । 


मिश्रा जवाब देते उसके पहले शेड में एक आमद और हुई। तीस के आसपास की युवती और पाँच छः साल की बच्ची। युवती पेट से थी। वकील और मिश्रा दोनों खड़े हो गये।


"इस मौसम में इस हाल में बाहर क्यों निकलीं आप !" वकील की आवाज में चिंता थी।


"डाँक्टर को दिखाने गई थी। आटो के इन्तज़ार में खड़ी रही फिर पैदल चल दी।" युवती हाँफने लगी थी।


"बैठ जाओ ;बैठ जाओ। घर में फोन कर देतीं। ऐसी हालत में अकेले निकलना..." पूरा दम लगाकर बैंच को पोंछ कर सुखाने की कोशिश की मिश्रा ने। फिर हार कर उसके ऊपर अपना बड़ा रूमाल बिछा दिया।


उन दोनों के आ जाने से शेड का माहौल एकदम से बदल गया । वकील और मिश्रा दोनों का ध्यान अब नये मेहमानों को बारिश से बचाने और उनकी घबराहट कम करने में लग गया था।


युवती उभरे पेट पर हाथ रखे बाहर देखने लगी थी। बच्ची बैंच से उठकर वकील और मिश्रा के पास आकर खड़ी हो गई।


" बेबी तो नहीं भीगा होगा ना अंकल?" बच्ची की बात पर पहले दोनों अचकचाए फिर हँसने लगे।


"नहीं नहीं बिल्कुल नहीं ! तुम्हारा भैया बिल्कुल नहीं भीगा है। आराम से है वो तो" मिश्रा की आवाज में बहुत सारा दुलार था।


"हें! ;भैया क्यों! बहन क्यों नहीं!" वकील ने झूठे गुस्से से मिश्रा की तरफ आँखें तरेरीं।


"साॅरी साॅरी ! क्षमा क्षमा।" मिश्रा ने कान पकड़े। बच्ची खिलखिलाकर हँसने लगी। लड़की ने मुस्कुराते हुए अपने उभरे पेट पर हाथ फेरा।


"बेहतर!" आप मुल्क की बेटियों को कम आँक रहे हैं । कल इन्हीं का है साहब।" वकील अब खुलकर मुस्कुरा रहे थे।


वकील का फोन खड़का। वकील ने हाँ हूँ अच्छा करके कुछ बात की और फोन रख दिया।


" मेरा एक दोस्त टैक्सी वाला है। आ रहा है लेने। टैक्सी में एक की ही जगह है।" वकील धीरे से बोला।


कुछ पल की चुप्पी के बाद मिश्रा ने वकील के कंधे पर हाथ रख दिया "तुम नूर हो ना ? नूर अली। तुम्हारी अजीब तरह से नाक सिकोड़ने की आदत से मैंने तुम्हें पहचाना। मैं जग्गी जगन मिश्रा। याद आया!"


वकील कुछ बोलता उसके पहले धड़धड़ाती टैक्सी आ खड़ी हुई।


"चलो मियाँ जल्दी।" टैक्सी वाला चिल्लाया।


"आइये।" वकील ने लड़की की तरफ देख कर कहा।


" जी मैं ! मैं समझी आपने अपने लिये...।" लड़की अचकचा गई।


"अरे जल्दी आइये। चिता ना करें। जहाँ कहेंगी ड्राइवर पहुँचा देगा।" वकील ने दरवाजा खोलकर उसे संभाल कर बिठाया।


 "और हाँ, घर पहुँचते ही गीले कपड़े बदलना और गर्म अदरक की चाय पीना। सारी सर्दी छू हो जायेगी यूँ..यूूँ" मिश्रा ने चुटकियाँ बजाते हुए हवा में लहराईं।


"बाय दोनों अंकल, बाय बाय" बच्ची खिड़की के काँच से चिपककर हाथ हिलाने लगी।


" बाय बाय बाय" दोनों टैक्सी के ओझल होने तक हाथ हिलाते रहे।


टैक्सी जाने के कुछ समय तक दोनों चुप रहे। बारिश 

पूरे जोरों पर थी।


" पता है जग्गी! मुहल्ले में वो गुमठी अभी भी है जहाँ हम चाय पीते थे, अदरक वाली चाय, सर्दी फुर्र फुर्र वाली चाय, सारे गम फुर्र फुर्र वाली चाय" वकील ने हवा में चुटकियाँ लहराईं और फिर मिश्रा का हाथ थाम लिया।

अब तक की ठहराव वाली आवाज़, अब भारी थी।


"पहचान लिया ना! तो..तो पहले क्यों नहीं बोला!" मिश्रा ने वकील के हाथों को कस लिया था ।


 दोनो के बीच अपनी भी उपस्तिथि दर्ज कराने के लिये बारिश ने चिढ़कर बादलों को गर्जाया और आसमान में बिजली भी चमकाई। पर दोनो को अब परवाह नहीं थी।


 "याद है जग्गी, ऐसी बारिश में तो अपन घर से चोरी छिपे निकल कर बाहर क्रिकेट खेलते थे।" वकील ने शोर करती बारिश को चुनौती दी।


" याद है , याद है! और फिर तेरे अब्बा की डाँट से बचने के लिए पीछे के दरवाजे से तेरे घर में घुसते और..और.."


"और अम्मी पहले डाँटती थीं और फिर दोनों के कपड़े बदलावकर गर्म चाय के साथ भजिये खिलाती थीं" वकील ने हँसते हुए मिश्रा के दोनो कंधों को अपने हाथ से घेर लिया।


"क्या दिन थे यार!" मिश्रा ने हँसी में सुर मिलाया।

 

" तो फिर चलें? वकील बोला


" कहाँ?"


" घर, अपने घर। तू अभी कुन्दन नगर चल रहा है मेरे साथ। कोई ना नू नहीं पंडित!" वकील ने मिश्रा के आगे झूठे गुस्से में घूँसा तान दिया।


मिश्रा कुछ पल अचकचाया और फिर वकील का हाथ कस कर पकड़ लिया। दोनों बारिश को आँखें दिखाते हुए शेड से बाहर दौड़ पड़े। 



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