औरत की दुश्मन
औरत की दुश्मन
औरत ही औरत की सबसे बड़ी दुश्मन है, यह रीतिका को शादी के बाद भली भांति समझ मे आ गया था, खूब पढ़ी -लिखी थी वो, आते ही उसने नोकरी की इच्छा जताई, सास बोली, नोकरी तो मैं ना करने दूंगी। कुछ दिन अड़ी रही रीतिका, पर सास पर कहाँ चलता जोर। कैसे करने देती सास नोकरी, फ्री की नोकरानी जो मिल गयी थी उसे, अगर बहु नोकरी के लिए जाएगी तो घर कोन संभालेगा, घर के सारे काम सौंप कर सास सैर के लिए निकल जाती।
बहू रुआँसी सी होकर सारे काम करती रहती, दिन बीते साल बीते, रीतिका दो बच्चों की माँ बन चुकी थी अब। पर एक नए निश्चय के साथ उसने फिर आवाज उठानी शुरू कर दी, सुन कर सास भड़क उठती, अब बच्चो की जिन्दगी बना खुद की सोचना बंद कर दे। वो रोती ओर बोलती मैने कब अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ा है, सब करुँगी, घर का काम भी करुँगी। बस मौका दीजिये आगे बढने का। वक़्त बिता पर सास ना मानी।
एक दिन रीतिका अपने दादा ससुर तक फरियाद लेके पहुँची। उन्होंने उसे स्कूल खोलने की इजाजत दे दी। अब रीतिका कहाँ रुकने वाली थी। मायके वालों की सहायता से स्कूल खोला, सुबह उठ कर काम करके जाती, दुपहर को सबको गरम खाना खिलाती,
रात को भी घर के सारे काम निपटा कर थक हार कर सो जाती। कभी -कभी रुआँसी भी हो जाती थी, ससुर, पति, देवर जब दुकान से लौट कर आते है, तब उस से उनकी बहुत सेवा करवाती है , पर जब वो स्कूल से लौटती है, तो उसे कोई पानी भी पिलाने वाला नहीं होता।
ये सब देख उसके आंसू टप-टप बहने लगते। पर हार कहाँ मानने वाली थी, रीतिका। आखिर उसका स्कूल चल निकला, शहर की नामी हस्ती बन गयी थी अब वो। अब उसकी सास आगे बढ़ -बढ़ कर तारीफों के पुल बांधने आती, अब वही संस्कार विहिन रीतिका संस्कारी बन चुकी थी, वही हर समय कोसी जाने वाली रीतिका तारीफ़ों के लायक बन चुकी थी। हर पल रीतिक को सास के अटकाए रोडे याद आते, पर वो ये सोच कर अंत भला तो सब भला, मुस्करा कर आगे बढ़ जाती।