अनकहा प्यार

अनकहा प्यार

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मैं तो अपनी दुनिया में रम ही गई थी पर कुछ आहटें सीधे दिल को सुनाई देती हैं और तब जो बेचैनी होती है वह और कुछ नहीं एक कशिश होती है प्यार की। ऐसी हो बेचैनी आज मुझे हो रही थी। 

"गुड मॉर्निंग मैडम, क्या मैं डीजीपी साहब को अंदर भेज दूँ ? " रामलाल की आवाज़ सुनते ही मैंने खुद को संभाला।

"ठीक है, भेज दो। हाँ रामलाल आज छुट्टी के बाद सारे टीचर्स की मीटिंग मेरे ऑफिस में होगी। नोटिस भिजवा देना।" मैं बेवजह की मीटिंग बुला रही थी शायद खुद को बहलाने के लिए।

"हलो निभा ! पहचाना, जब से मेरी पोस्टिंग डलहौज़ी हुई है तब से तुमसे मिलना चाह रहा था।" डीएसपी अनुराग को देखते ही मुझे अंदर से सिहरन हो गई। 

मैंने अपनी भावनाओं को काबू में रखते हुए एक बनावटी मुस्कान चेहरे पर बिखेर दी।

"ये मेरे बेटे के सर्टिफिकेट और फॉर्म है। अब जल्दी से बता दो वह कब से स्कूल आना शुरू कर दे।" आज भी अनुराग का वही रोब, अक्खड़पन और अधिकार जताना .....जैसा कि तीस साल पहले था। मैं अवाक थी कि मर्द की फ़ितरत शायद कभी नहीं बदलती। 

मगर इसी फ़ितरत पर तो मैं मर मिटी थी और अपना सब कुछ दे बैठी थी। फ़र्क इतना ही कि उसका मन बहलाना मेरे लिए ज़िन्दगी थी, प्यार था जिसका इज़हार न मैंने तब किया था और न अब कर सकती थी। मैंने अपने प्यार को जकड़ कर अपनी रफ़्तार को थाम लिया था और अनुराग बढ़ता गया और हमेशा से मेरे अहसास में समाता चला गया। 

मेरा अनकहा प्यार मुझमें और मेरी दोस्ती उसमें आज भी सांसें ले रही है। अब मैं खुलकर हँसने लगी हूँ।


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