अंधविश्वास
अंधविश्वास
सखि,
जमाना कितना बदल गया है। आदमी चांद से भी आगे पहुंच गया है। मगर लोगों की सोच वहीं की वहीं पड़ी हुई है। अब अंधविश्वास को ही देख लो। आदमी आज किसी पर भी विश्वास नहीं करता है। यहां तक कि अपने मां बाप पर भी नहीं। मगर कुछ दकियानूसी, अतार्किक, अंधविश्वास वाली बातों पर वह आज भी आंख मूंदकर विश्वास कर लेता है।
अभी कल की ही बात है। हमारी कॉलोनी में सब लोग पढे लिखे और समझदार से दिखते हैं। अब वे वैसे हैं या नहीं, कुछ कह नहीं सकते हैं। कल सुबह जब मैं मॉर्निंग वॉक के लिये जा रहा था तो मैंने देखा कि हमारे मकान के सामने चौराहे पर एक कटा हुआ नीबू और दो हरी मिर्च रखी हुई हैं। उन्हैं देखकर एक बार तो मैं ठिठक गया और उस आदमी की सोच पर बहुत गुस्सा आया कि वह अभी भी "नीबू मिर्च " की दुनिया में जिंदा रह रहा है। लोगों को तो दाल में डालने के लिये भी नीबू नहीं मिल रहे हैं और एक वह बंदा है जो इस तरह सरेआम नीबू काटकर चौराहे पर फेंक रहा है। है ना अजीब बात, सखि। ऐसे एक से बढ़कर एक नमूने भरे पड़े हैं इस देश में। बिल्ली के रास्ता काट जाने पर बड़े बड़े अफसर, डॉक्टर, इंजीनियर भी दो पल को रुक जाते हैं जैसे कि वह बिल्ली पता नहीं क्या कर देगी ? ऐसे अंधविश्वासी लोगों का तो भगवान ही मालिक है, सखि।
पर हर जगह ऐसा हो, यह भी सही नहीं है। हमारे एक परिचित व्यक्ति के बेटे की शादी थी। उस घर में खुशी से अधिक गम व्याप्त था। हुआ यूं कि चार पांच साल पहले भी उस घर में एक शादी हुई थी। उनकी बेटी शोभा की शादी थी। बड़ी धूमधाम से शादी हुई। खुशी खुशी दुल्हन विदा हुई अपने दूल्हे राजा के साथ। एक घंटे बाद ही सूचना आ गई कि एक एक्सीडेंट हो गया है और उसमें दूल्हे की मृत्यु हो गई है। बेचारी दुल्हन सधवा होने से पहले ही विधवा हो गई। बस, तब से ही वह अपने पीहर मे रह रही है।
जब उसके छोटे भाई की शादी की बात चल रही थी तो उसके मम्मी पापा ने उस लड़की से बात की और पुनर्विवाह करने के लिए कहा मगर लड़की ने मना कर दिया। अब बेटी के चक्कर में बेटे को तो कुंवारा नहीं रखा जा सकता है ना। बेचारी मां बड़ी दुविधाग्रस्त थी। बहू का स्वागत तो "सवासणी" अर्थात बहन ही करती है। भाई भाभी को घर में घुसने से पहले वह दरवाजा रोकती है। और जब "नेग" मिल जाता है तब उन्हें अंदर घुसने देती है।
ऐसी मान्यता है कि नई नवेली बहू के सामने कोई "विधवा" स्त्री नहीं आनी चाहिए। यहां तो सगी ननद ही विधवा है। दोनों मां बेटी परेशान थीं। बेटी खुद उनके सामने नहीं आना चाहती थी। और बेचारी मां ? उसकी दुविधा का कोई अंत नहीं था। बेटे बहू की ओर देखती तो ख्याल आता कि विधवा बेटी को कैसे उनके सामने भेजे ? और जब बेटी को देखती तो सोचती कि इसमें इस बेचारी का क्या दोष ?
लेकिन प्रश्न अपनी जगह पर कायम था। इस कारण घर में उल्लास नहीं था। आखिर वह घड़ी आ ही गई। बेटी कहीं छिप गई और रिश्ते की कोई और बेटी से रस्म कराई जाने लगी। ऐसे में नई नवेली दुल्हन ने ऐसा काम किया कि सब लोग उसके मुरीद हो गये। उसने कह दिया कि "दीदी" जब तक सामने नहीं आयेंगी, तब तक वह भी गृह प्रवेश नहीं करेगी। कुछ औरतों ने रस्मोरिवाज का हवाला भी दिया मगर दुल्हन टस से मस नहीं हुई। आखिर विधवा बेटी सामने आई और अपनी भाभी को कृतज्ञ निगाहों से देखते हुए उसने मन ही मन उसे हजारों आशीर्वाद दे दिये। बहू ने अपने आचरण से एक ऐसी मिसाल पेश की कि पूरा घर आनंदोत्सव में डूब गया।
सखि, सोच अगर हो तो उस नई बहू के जैसी होनी चाहिए। उसे हम सच्चे अर्थों में आधुनिक कह सकते हैं। केवल जींस टॉप पहनने से कोई आधुनिक नहीं बन जाता है, आधुनिक बनने के लिए सोच बदलनी पड़ती है। अंधविश्वासों को परे रखना पड़ता है। काश, ऐसी सोच सबकी होती।
