अधूरी प्रेम कहानी
अधूरी प्रेम कहानी
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अधूरी प्रेम कहानी
लेखक : विजय शर्मा एरी
मालगाँव में गर्मियों की दोपहरें इतनी लम्बी होती हैं कि लगता है सूरज रुककर किसी से कुछ कहना चाहता है। लाइब्रेरी की पुरानी लकड़ी की खिड़कियों से धूप छनकर ज़मीन पर सोने की लकीरें बनती हैं। रीता उन लकीरों के बीच बैठी किताबों पर धूल झाड़ रही थी। उसकी उँगलियाँ पतली थीं, नसें उभरी हुईं, मानो कोई नाज़ुक नक्शा।
राघव पहली बार लाइब्रेरी में आया था जुलाई के पहले हफ्ते में। बैंक से छुट्टी के बाद उसने सोचा था कि कुछ किताबें ले लेगा ताकि शामें कटें। उसने काउंटर पर घंटी बजाई। रीता ने सिर उठाया। उसकी आँखें हल्की भूरी थीं, जैसे पुरानी किताबों के कागज़ का रंग।
“नया सदस्य बनना है?”
“हाँ।”
“नाम?”
“राघव… राघव मेहता।”
रीता ने रजिस्टर खोला, कलम से लिखा। उसकी लिखावट इतनी सुन्दर थी कि राघव ने बरबस कहा, “आपकी लिखावट तो छपाई जैसी है।”
रीता मुस्कुराई। पहली बार। उस हँसी में कोई पुराना दर्द छिपा था, पर राघव ने उस वक्त नहीं देखा।
फिर हर शाम राघव आने लगा। पहले किताबें लेने, फिर बातें करने। रीता कम बोलती थी, पर जो बोलती थी, साफ और सच्ची। उसे प्रेमचंद पसंद थे, मन्नू भंडारी पसंद थीं, और कहीं गहरे में कविताएँ भी। राघव को लगा कि वह पहली बार किसी से सचमुच बात कर रहा है।
एक दिन बारिश बहुत तेज़ थी। लाइब्रेरी बन्द होने का वक्त हो गया था, पर राघव नहीं गया। रीता ने चाय बनाई – दो पुराने कुल्हड़ों में।
“तुम्हें दर्द होता है ना कभी-कभी?” राघव ने अचानक पूछा।
रीता चौंकी। “कैसे पता?”
“तुम जब किताबें ऊपर वाली आलमारी में रखती हो, तो एक पल के लिए चेहरा सिकुड़ जाता है। मैंने कई बार देखा।”
रीता ने कुल्हड़ नीचे रख दिया। “कुछ पुरानी तकलीफ है। कुछ नहीं होता।”
उसके बाद भी कई शामें आईं। कई बारिशें। कई चाय।
राघव को पता था कि वह प्यार कर रहा है। रीता को भी पता था, पर वह हर बार पीछे हट जाती।
एक दिन रीता लाइब्रेरी नहीं आई।
राघव बैंक से छुट्टी लेकर अस्पताल पहुँचा। सिविल हॉस्पिटल की पुरानी बेंचों पर बैठे लोगों के बीच उसने डॉक्टर साहब को पकड़ा।
“रीता कहाँ है?”
डॉक्टर ने चश्मा ऊपर किया। “तुम कौन?”
“दोस्त… बहुत अच्छा दोस्त।”
डॉक्टर ने उसे एक तरफ ले जाकर धीरे से कहा, “सिक्ल सेल एनीमिया है उसे। बचपन से। पिछले हफ्ते क्राइसिस बहुत बुरा था। अब ठीक है, पर… लड़की के पास वक्त बहुत कम है, शायद दो-तीन साल, शायद उससे भी कम। उसने किसी को नहीं बताया। न परिवार को, न किसी को।”
राघव के पैरों तले ज़मीन खिसक गई।
उस शाम वह लाइब्रेरी गया। रीता थी। कमज़ोर, पर मुस्कुराती हुई।
“आज देर से आए?”
राघव कुछ नहीं बोला। बस उसकी आँखों में देखता रहा।
रीता समझ गई। “डॉक्टर साहब ने बता दिया ना?”
राघव ने सिर हिलाया।
रीता ने किताब बन्द की। “मैं नहीं चाहती थी कि कोई रोए मेरे लिए। खासकर तुम।”
“मैं रो नहीं रहा।”
“झूठे।” रीता ने उसका हाथ पकड़ा। उसकी हथेली ठंडी थी। “राघव, मेरे पास जो वक्त है, उसे मैं दुख में नहीं गँवाना चाहती। तुम भी मत गँवाओ।”
फिर भी वे मिलते रहे। अब छिपकर नहीं, खुलकर।
राघव उसे घर ले जाता। उसकी माँ को पता चल गया था। माँ चुपचाप रीता के लिए हलवा बनाती। रीता हँसती।
एक दिन रीता ने कहा, “मुझे दिल्ली जाना है। एक नई दवा का ट्रायल चल रहा है। बहुत महँगी है। पर कोशिश करनी है।”
राघव ने अपनी सारी जमा पूँजी निकाल ली। बैंक का लोन ले लिया। रीता मना करती रही, पर वह नहीं माना।
दिल्ली में तीन महीने रहे। रीता को दवा लगी। कभी बहुत दर्द होता, राघव रात भर उसका हाथ पकड़े बैठता। कभी अच्छा लगता, तो दोनों अस्पताल की छत पर चाय पीते।
एक रात रीता ने कहा, “अगर मैं बच गई, तो शादी कर लेंगे?”
राघव ने हँसकर कहा, “अगर तुम नहीं भी बचीं, तो भी मैं तुम्हारे नाम की माला जपता रहूँगा।”
रीता ने उसका माथा चूमा।
फिर एक सुबह डॉक्टर ने कहा – दवा काम कर रही है। प्लेटलेट्स बढ़ रहे हैं। क्राइसिस की तीव्रता कम हो रही है। पूरी तरह ठीक तो नहीं होगा कभी, पर जीने लायक ज़िंदगी मिल सकती है – दस साल, बीस साल, शायद उससे भी ज्यादा।
रीता रो पड़ी। पहली बार।
मालगाँव लौटे तो सर्दी शुरू हो गई थी। लाइब्रेरी की पुरानी घंटी फिर बजने लगी। राघव शाम को आता, रीता चाय बनाती। अब रीता की हँसी में दर्द नहीं छिपता था, बस थोड़ी-सी थकान थी, जो आराम से चली जाएगी।
एक शाम रीता ने राघव को एक नई किताब दी। उस पर उसका नाम लिखा था – “रीता राघव मेहता”।
“ये तो अभी से?” राघव ने हँसकर पूछा।
रीता ने शरमाते हुए कहा, “डॉक्टर ने कहा है – अब डरने की ज़रूरत नहीं। अब जीने की ज़रूरत है।”
राघव ने किताब खोली। पहला पन्ना खाली था। रीता ने कलम बढ़ाया।
“लिखो।”
राघव ने लिखा –
“यह कहानी अधूरी नहीं रही।
यह कहानी बस शुरू हुई है।”
बाहर कोहरे में मालगाँव की आखिरी ट्रेन की सीटी बजी।
दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थामा।
और इस बार… कोई जाने वाला नहीं था।
(शब्द संख्या : १५१८)
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विजय शर्मा एरी
