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PRAVIN MAKWANA

Inspirational

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PRAVIN MAKWANA

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अधैर्य और धैर्य

अधैर्य और धैर्य

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 एक गांव के पास एक नाव में दो भिक्षु पार कर रहे थे नाव। नदी पार की, एक वृद्ध भिक्षु है, एक जवान भिक्षु है। दोनों के सिर पर ग्रंथों का बड़ा बोझ है। भिक्षुओं के सिर पर होता ही है, साधु-संन्यासियों के सिर पर ग्रंथों का बोझ न होगा तो और क्या होगा? तिजोरी का बोझ हटता है तो किताबों का बोझ सिर पर बैठ जाता है। वे अपना-अपना बोझ लिए हुए हैं। दोनों उतरे हैं, मल्लाह से पूछने लगे हैं, मांझी से कि हम कितनी देर में गांव पहुंच जाएंगे। क्योंकि हमने सुना है कि इस गांव का नियम ऐसा है कि सूरज ढलते ही गांव का दरवाजा बंद होता है, फिर रात भर हमें जंगल में रहना पड़ेगा। सूरज डूबने के करीब है, सूरज नीचे उतर रहा है। उस मांझी ने अपनी नाव धीरे से बांधते हुए कहा कि धीरे-धीरे जाओ तो पहंुच भी सकते हो, लेकिन जल्दी गए तो पहुंचने का कोई भरोसा नहीं है।

अब ऐसी बात पागलपन की मालूम होती है। उन दोनों भिक्षुओं ने सोचा कौन पागल से हम पूछ रहे हैं, उलटी बात कह रहा है? कह रहा है, धीरे-धीरे जाओ तो पहुंच भी सकते हो, अगर जल्दी गए तो पहुंचने का कोई पक्का भरोसा नहीं है। फिर उन्होंने उससे कुछ भी पूछना उचित न समझा। वे दोनों भागे, क्योंकि कहीं रात न पड़ जाए और दरवाजा बंद न हो जाए। अन्यथा फिर रात, जंगल है, घना जंगल, अंधेरी रात, मुश्किल हो सकती है। वे दोनों भाग रहे हैं, और आखिर जो होना था वही हुआ। उस बूढ़े का पैर एक पत्थर से फिसल गया, वह गिर पड़ा, दोनों टांगें टूट गईं, सारे ग्रंथ के पन्ने बिखर गए।

वह मांझी अपनी नाव बांध कर, अपनी पतवार लेकर धीरे-धीरे आता था। बूढ़े को पड़े देखा, जवान उसके पैर पर पट्टियां बांध रहा है। वह नाविक आकर खड़ा हो गया और कहने लगा, "मैंने कहा था अगर धीरे से जाओगे तो पहुुंच भी सकते हो। जल्दी गए, पहुंचने का कोई भरोसा नहीं। अनेक जल्दी जाने वालों को इसी तरह इन्हीं पत्थरों पर गिरते हुए मैं देख चुका हूं। लेकिन तुमने मेरी बात नहीं मानी, तुम समझे कि मैं कोई पागल हूं। तुमने मेरी बात विचारी भी नहीं, तुमने मेरी बात पर ध्यान भी नहीं दिया। तुमने समझा कि इससे हमने पूछ कर ही गलती की है। अब तुम मुश्किल में पड़ गए, अब पहुंचना बहुत मुश्किल है। अच्छा मैं चलता हूं, नमस्कार। अभी समय है और मैं धीरे-धीरे जा रहा हूं, पहुंच जाऊंगा।"

जीवन के जो परम सत्य हैं वहां अधैर्य से काम नहीं चलता है। असल में अधैर्य के कारण ही हम विश्वास कर लेते हैं या अविश्वास करते हैं। अधैर्य के कारण, वह जो इंपेशेंस है, ऐसा लगता है--अभी, इसी वक्त। तो अभी और इसी वक्त विचार तो नहीं हो सकता, अंधापन हो सकता है--किसी को भी मान लो। विचार करना है तो अत्यंत धैर्य चाहिए। और बड़े आश्चर्य की बात है कि जितना धैर्य हो उतनी जल्दी मनुष्य निर्णय पर पहुंच जाता है, और जितना अधैर्य हो उतना ही पहुंचना मुश्किल हो जाता है--क्यों? क्योंकि धैर्य की जो क्षमता है, जो शांति है, वह विचार करने के लिए सहारा बनती है। अत्यंत धीरज से भरा हुआ चित्त ठीक से देख पाता है, सोच पाता है, समझ पाता है।


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