आँखों देखा
आँखों देखा
अर्निशा घर आ कर माँ से लिपट जार जार रो उठी। आंसू और हिचकी साँस की लय को रोक रहे थे। बिलखती अर्निशा लम्बी साँस लेकर अपने भावों को नियंत्रित करती। पर भावों का वेग सब कुछ बहाने पर उतारूँ था। जैसे बादल फट कर प्राणदाई वृक्षों की जड़ें उखाड़ फेंकते हैं, क्यूँ नहीं समझ पाते उसके पानी को तो वे ही अपनी जड़ों में बटोर अमृत तुल्य बनाते हैं।
नहीं रुका आज अर्निशा का वेग ,
और एक निर्णय “माँ, नहीं रह सकती अब विहान के साथ। सारा खेल ख़त्म माँ “
माँ उदिग्न बेटी का सिर सहलाती सोच रही थी। वेग थमे तो सत्यता को चिन्हित करेगी। आख़िर बेटी को सिर आँखों पर बिठाने वाले विहान से क्या गलती हुई ? उनकी परिपक्व आँखें सोच रही थी ,एक बार वे भी जिस झूठ को सच मान अपना घर त्याग चुकी है। जिसका सच उन्हें आज तक ग्लानि देता आ रहा है। पति को ऑफ़िस कलीग के साथ देख चरित्रहीन का सर्टिफिकेट दे बड़े अभिमान से छोड़ दिया था।
आज बेटी को बताएगी ,आँखों देखा भी १००/ सच नहीं होता। जीवन एक पहेली है। जिसे जल्दी बाजी में नहीं, विवेक द्वारा ही समझाया जा सकता है। एक दीपक दूर अँधेरी रात भर जल राह को दिखा रहा था।
