वनिता
वनिता
हे कांता !
कौन सी मिट्टी से बनी हो तुम
अपनी इच्छाओं का दमन कर
कैसे रह पाती हो
हंसती मुस्कराती तुम ?
वाकई बेमिसाल हो तुम
हे स्त्री !
कैसे हर परिस्थिति में
खुद को ढाल कर
सामंजस्य बिठा पाती हो तुम ?
सच में कमाल हो तुम
हे कामिनी !
शारीरिक और मानसिक
सौंदर्य से ओतप्रोत
रति !
अपने प्रियतम के प्राण हो तुम
हे ललना !
वात्सल्य रस का झरना
चंदन के समान हो तुम।
हे रमनी !
झकझोरता हे तेरा सेवा भाव,
तेरा क्षमाशील व्यवहार।
आखिर क्या है तेरी मिट्टी में ?
तपकर बन गई है तू
सिर्फ वनिता नहीं देवात्मा !
