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Nimisha Singhal

Abstract

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Nimisha Singhal

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वनिता

वनिता

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हे कांता !

कौन सी मिट्टी से बनी हो तुम

अपनी इच्छाओं का दमन कर

कैसे रह पाती हो

हंसती मुस्कराती तुम ?


वाकई बेमिसाल हो तुम

हे स्त्री !

कैसे हर परिस्थिति में

खुद को ढाल कर

सामंजस्य बिठा पाती हो तुम ?


सच में कमाल हो तुम

हे कामिनी !

शारीरिक और मानसिक

सौंदर्य से ओतप्रोत

रति !


अपने प्रियतम के प्राण हो तुम

हे ललना !

वात्सल्य रस का झरना

चंदन के समान हो तुम।


हे रमनी !

झकझोरता हे तेरा सेवा भाव,

तेरा क्षमाशील व्यवहार।


आखिर क्या है तेरी मिट्टी में ?

तपकर बन गई है तू

सिर्फ वनिता नहीं देवात्मा !


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