वैश्या
वैश्या


उस घर से रात बिता कर निकली,
नज़र चुराकर कुछ घबरा कर,
सरपट चल दी, तन्हा अकेली।
दरवाज़े पर ठिठक के ठहरूं,
दाएं बाएं दिक् दिशा निहारूं,
हो कोई आहट तो रुक जाऊं,
फूंक फूंक कर कदम बढ़ाऊँ।
ऐसी भी क्या हुई विवशता !
मोल मेरा क्यों हुआ है सस्ता ?
है शरीर को बेचा मैंने,
मगर आत्मा अब भी सच्चा।
मैंने भी खेली है गुड़िया।
खूब सताया है बाबुल को,
मैंने बन के नकली बुढ़िया।
मैंने भी बाँधी है राखी,
भैया ही था सखा सलोना।
पर, आज ज़माने की नज़रों ने,
मुझसे मेरा सब कुछ छीना।
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मिट्टी की गुड़िया तो छोड़ो,
मेरा ही बन गया खिलौना।
न है इसकी प्राण प्रतिष्ठा,
न ही इसकी है कोई गरिमा,
चंद अशर्फी दे कर इसको,
ना जाने कितनों ने लूटा।
नाम नहीं है उन लोगों का,
जिनका मन चंचल हिंडोला,
पर कहलाती हूँ मैं गाली,
गन्दी औरत, घटिया, साली।
आज ज़माने से कहती हूँ -
कभी सुना है तुमने पहले,
या आँखों से देखा अपने,
एक हाथ से बजती ताली ?
हो निशब्द !
क्यों मौन पड़े हो ?
कोई बताएगा अब मुझको,
क्यों कहलाती हूँ मैं गाली ?