Untitled
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हवस का दरिया सा बह रहा था
चार पाँच हाँथ धो रहे थे
दरिंदगी का खेल चालू था
नफ़रतों हवस का नाच चार था
वो कोई थे वो कोई थे
वो अपनी मस्ती मे गुम से थे
याद नही था उन्हें मंज़िल ए इल्ज़ाम का
याद था उन्हें मंज़िल ए नशा का
हक़दार तो हम सब थे
उस दरिंदगी के नाच के
इल्ज़ाम बस लगा था तो सिर्फ उनपे।
