तमन्ना
तमन्ना
बैठे थे गुमसुम नदी के किनारे,
पता नहीं किसका था इंतज़ार।
ना कोई मंज़िल थी, ना ही कारवां,
बस चल पड़े थे यूंही, बेज़ार।
नदी भी बड़ी अजीब है,
ना कोई मंज़िल है और ना कोई निशान।
बस चलती रहती है,
जैसे चलना ही इसकी पहचान।
जब झांका मैंने अपने अंदर,
मुझे लगा कि कहीं मैं भी नदी तो नहीं?
लोग कहते थे, मुकद्दर का सिकंदर!
आज हंसी आती है, मज़ाक ही था!
पर एक बात जरूर कहना है,
आज कोई गीला शिकवा नहीं,
जो मिला जीवन में, बहुत है,
और कोई तमन्ना नहीं!
नदी को देखता हूं,
और सोचता हूं,
कितनी सीधी जीवन शैली है,
चलते जाओ, चलते जाओ,
जैसे चलना ही जीवन है।
हे ईश्वर, इतनी करुणा करना,
अगले जनम में नदी ही बनाना,
फिर मैं भी उसी प्रकार,
शांत बन जाऊँ, चलता रहूँ,
चलता रहूँ ...
