तलाश खुद के वजूद की
तलाश खुद के वजूद की
लफ्ज़ों की थी कश्मकश
घने जंगलों में,
उन राहों में कहीं ठहर-सी गई
कहना बहुत कुछ था।
हर एहसास को जुटाए लबों पर लाना बाकी था,
लब तो सी गए थे,
जाने क्यूँ, बहुत कुछ कह जाने की ज़िद थी,
पर अंदर से जैसे खोखली हुई जा रही थी।
न अश्क निकल आते रुखसारों पर,
घूँट ठंडी आह की सीने में ठहर जाती,
गुफ्तगू इन उलझनों से करने चली थी,
स्याह रातों में चाँद की ओर ताकती भी जा रही थी।
हँसी जैसे खो गई थी
उन राहों में ही कहीं,
कोई जवाब चाहता था
कोई टिप्पणियाँ बूझ लिया करते,
पर कोई सवाल मतलब का नहीं मेरा।
हमराज़ होने का दावा करते हैं,
कहाँ कोई हमनवा ठहरे।
झूठी शान मुस्कान में छिपाए,
गर आँख नम भी हो जाए तो परवाह नहीं,
बस आँसुओं से ही
जंग हुई जा रही थी।
कहीं छलक आए ना
ये अनकही दास्तां...
जो क़ैद थी बरसों से,
उनकी आवाज़ की तल्ख़ियाँ
बयां न कर जाए।
चश्मों में क़ैद एक दरिया सा है,
वो जो लबों पर एक कश्मकश से नाच रहे थे,
आज जाने क्यूँ बड़े अपने से लग रहे हैं।
जैसे कोई तूफ़ान
इस ठहरी हुई कश्ती को पार लगाने को है,
बिख़री थीं ख्वाहिशें कई बार,
आज लगता है
जैसे वो बिखरे मोती तराशा हुआ
कोई खूबसूरत शाहकार
में तब्दील होने को है,
ठहरा कर अल्फ़ाज़ को
एक नए दौर की जंग थी जारी,
खुद की ख़ुद से ही
अपने वजूद की पहचान की,
तलबगार थी।
जो रुक कर देख लिया,
अब तो मुहब्बत की बारी थी।
जी हाँ, खुद की तलाश में
अब लबों से लफ्ज़ों की
तल्ख़ियाँ ज़रूरी थी अभी।