तिनका
तिनका
मुश्किलों के भंवर में फंसी ज़िन्दगी
जैसे नदी में एक ऐसी रूह जिसे तैरना भी ना आता हो।
कितना ही चीखे-चिल्लाए पर कोई नज़र ही ना आए।
खुद ही अपने ख्यालों में उलझी सी डूब रही है।
सोच रही है कि क्या सही है क्या गलत।
उम्मीद कर रही है कि कोई आएगा और बचाएगा।
साँस फूल रही है।
आखिर कब तक ?
कब तक यूँ ही लाचार सी औरों के इंतज़ार में बेबस रहेगी।
कुछ प्रयास तो करने ही होंगे।
क्या पता कहीं मिल जाए
एक रस्सी, एक सहारा या पार कर जाए खुद ही।
खैर! अब तो एक तिनका,
एक तिनका ही बहुत है।
और जो मिल जाए एक तिनका तो ध्यान
से,कमज़ोर हैं तिनके
कसकर न पकड़ना,
रिश्तों की तरह ही तो हैं नाज़ुक से।
कभी तिनके का सहारा ले लेना, कभी तिनके का सहारा बनना।
यही तो है ज़िन्दगी,इसे ऐसे ही जीना होता है।
और हां, जो न मिला एक तिनका भी और न ही कर पाई पार।
जो डूब भी गई कहीं इस नदी में,
तो पहचानी जाओगी,जानी जाओगी,
उस सिपाही की तरह जिसने हार मानने से इनकार किया
और बन गई एक ऐसी रूह जिसकी मिसाल एक तिनके जैसी है
औरों के लिए।
ऐसे लोग जो माद्दा तो रखते हैं समुन्द्रों को पार करने का।
फिलहाल फंसे हैं नदियों में,किसी सहारे के इंतज़ार में..........