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Subhashree Mohapatra

Abstract

5.0  

Subhashree Mohapatra

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तब मैं भी मुस्कुराई थीl

तब मैं भी मुस्कुराई थीl

1 min
329


हाय! वह मुझसी, मेरी सूरत ,

मेरी आँखें मुझे डराती थीl

वह विवशता, वह चिखै-तड़पन 

सिर्फ मैं ही मनाती थीl

तब मैं ना मुस्कुराती थी 

तब मैं ना मुस्कुराती थीl

वह चाकू की धार नसों को छू जाती थी,

कब एक रात की नींद को तरसती,

कब मृत सी सो जाती थी!

जब वह थी मेरे साथ वह अपना मुझे बताती थी,

वो आंखों को मेरे अंधा कर, सपना दूर भगा दी थी,

के थका-हारा मुझे देखकर, ख्याल मेरे नचाती थी ,

बीते कल को आज बनाकर,

वह अतीत मुझे बनाती थीl

तब मैं ना मुस्कुराती थी 

तब मैं ना मुस्कुराती थीl

एक हाथ मिला, 

दो कान मिले ,

जो सुनने मुझको आए थे,

हां! एक दिल भी था उनके पास,

जो अपना मुझे बनाए थेl

के आँखों से डर हटाकर, 

सुरमे को सवार दिया,

वह तड़पन को तड़पा कर,

मुझे सुकून का स्पर्श दियाl

कहा... चाकू के उस धार से,

तेज मेरा दिमाग हैl

सपना दिखाया आँखों में,

कहा.... यह भी एक राग हैl

वह पहली किरण जब मुझसे ना टकरा कर,

मुझ पर आ खिली थी,

वह चार दीवारी के कमरे में,

मैं सिर्फ मैं!

हां सिर्फ मैं अकेली थीl

वह पहेलियां साथ छोड़कर,

हवाओं में समाए थे,

तब तनहाइयां जश्न में मेरे आकर मुस्कुराए थेl

हां तब मैं भी मुस्कुराई थी,

हां तब मैं भी मुस्कुराई थीl


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