स्वर्णिम सवेरा
स्वर्णिम सवेरा
एक दिन सूरज उगा कर दूर
कर दूँगी अंधेरा,
आज मैंने बो दिये हैं खेत में
अपने उजाले।
आस और विश्वास के जल से
इसे सीचूंगी हर दिन
साफ कर दूँगी ग़मों के हैं
जो खर-पतवार गिन-गिन
कुछ दिनों की बात है बस
जुगनुओं तुम राज कर लो
खुद-ब-खुद छँटने लगेंगे
हैं घने जो मेघ काले।
हौसलों की कोपले मिट्टी
हटा आयेंगी बाहर
हर तरफ फिर होंगे गुंजित
कोयलों के रस भरे स्वर
डालियों पर भोर की कलियाँ
खिलेंगी अनगिनत फिर
नन्ही किरणें मुस्कुरायेंगी
गले में बाँह डाले।
