समझ न सके
समझ न सके
समझ न सके हम आजतक, ज़माने का क्या दस्तूर है।
न जाने क्यों उन्हें दिखता, सिर्फ औरत का ही कसूर है।
ए ज़माने,
तेरी अलग ही फितरत है। सोच की और कर्म की,
दिशा ही अलग अलग है। रावण को बुराई का प्रतिक,तू बताता है।
सीता हरण तुझे याद है, पर उसका चरित्रहरण न कर ना तू भूल गया है।
रावण का नाश तो उसी युग हुआ है।और इस दौर में तू न्याय ही भूल गया है।
साधु बनकर जी रहे दुर्योधनों को छुपा रहा है, उनका शीलहरण करना तुझे दिख नहीं रहा है।
और तू रावण जलाने चला है।
ए ज़माने,
कभी देखा है खुद में झांककर, कितनी बुराईया तुझमे है।
आज हर उम्र की औरत असुरक्षित है।
कही पांच साल की पिंकी है, कही सत्तर साल की दादी है।
हर कोई किसी न किसी दुर्योधन का शिकार है।
और तू नवरात्री मना रहा है, स्त्री शक्ति की पूजा कर रहा है|
और उसी दौरान होने वाले छेड़खानी को,
तू अनदेखा कर रहा है।
सच में तेरी सोच और कर्म की दिशा ही अलग हेै।
बड़ा पापी कलियुग चल रहा हेै।
जहाँ दुर्योधन हजार हेैं।
उसकी सभा में बैठे तमाशा देखने वाले हेैं।
पर वस्त्रहरण रोकने वाला श्री कृष्ण एक भी नहीं।
