शीर्षक - कृषक
शीर्षक - कृषक
विवश, बेजान, लाचार है
कृषि प्रधान देश का कृषक ,
दूसरों का पेट भरने वाले अन्नदाता
खुद बना हुआ है याचक ।
सियासत की लोमड़ नीति में
चढ़ रही कृषकों की बलि ,
कर्ज़ में डूबा , आहत कृषक
माँगे हक तो मिलती गोली ।
रुधिर -श्रमसीकर जला देता है
अपना वो मेहनत की आग में,
पेट भर दो जून की रोटी नसीब
नहीं होती कृषक के भाग में ।
कभी सूखा, कभी आंधी-तूफान
कभी बेतहाशा बाढ़ निगल जाती फसल,
कभी ओलावृष्टि बरसाए आसमान
कभी दीमक चाट जाती फसल ।
भूख की बेचैनी, पैसों की किल्लत
जिंदगी हर वक़्त लेती कठोर इम्तहान,
अन्न की उचित कीमत नहीं मिलती, अंततः
दर्द की कीमत चुकाते हैं देकर अपनी जान ।
प्रगति और विकासशील देश में पूर्ण नहीं है
मेहनतकश कृषकों के लिए सरकारी अनुदान,
फिर गर्व से कैसे कहें ? उन्नत कृषि प्रधान
भारत देश हमारा ! जय जवान, जय किसान ?
