रंग-ए-वतन में रंग जाऊंगा, भारत माँ का सहासी सपूत कहलाऊंगा।
रंग-ए-वतन में रंग जाऊंगा, भारत माँ का सहासी सपूत कहलाऊंगा।
बचपन से देखा था मैने इक सपना,
तब से वतन-ए-रक्षा का इरादा था अपना।
सपना ऐसा कि सर पर जुनून संवार था,
बिना देखे जैसे मानो मेरा जीना दुश्वार था।
मेहनत करता और पसीना बहाता था रोज,
प्रतिदिन खुद की प्रतिभाओं की करता था खोज।
बस प्रतिदिन एक ही धुन दोराहता था कि
रंग-ए-वतन में रंग जाऊंगा,
भारत माँ का सहासी सपूत कहलाऊंगा।
वो लम्हा था मेरी जिंदगी का सबसे खास,
जब मेरी मंज़िल थी मेरे बिल्कुल पास।
सपने को पूरा करने वाली परीक्षाओं का दौर गुज़र गया था,
परिणाम की घड़ी आने के इंतज़ार में जैसे मानो
समय थम सा गया था।
इंतज़ार के पलों में भी बस प्रतिदिन एक ही धुन दोराहता था
कि रंग-ए-वतन में रंग जाऊंगा,
भारत माँ का सहासी सपूत कहलाऊंगा।
कुछ दिन गुज़र जाने के बाद घर के दरवाज़े पर इक दस्तक हुई थी,
खाकी वर्दी में झोला लटकाये हुए डाकिये से मुलाकात हुई थी।
जैसे मानो डाकिये की चिट्ठी से मेरा चेहरा खिल सा गया हो,
मुझे अपना सपना मिल सा गया हो।
उस चिट्ठी में शुभकामनाओ का संदेश था,
अगले हफ्ते सरहद पर तैनाती का आदेश था।
कड़े प्रशिक्षण के बाद सेना की वर्दी का था खूबसूरत सा अहसास,
आंखों से आँसू छलक गए जब पूरी हुई मेरे दिल की आस।
सपना पूरा होने के बाद भी प्रतिदिन एक ही धुन दोराहता था कि
रंग-ए-वतन में रंग जाऊंगा, भारत माँ का साहसी सपूत कहलाऊंगा।
1998-99 के सर्द हवाओं वाले मौसम का दौर था,
पाक-दुश्मनों के लाइन-आफ-कंट्रोल पार करके
भारत आ जाने का शोर था।
परिस्थितियां भी खराब और मौसम भी खराब था,
पर हमारा हौसला कभी डगमगाया नहीं था।
26-07-1999 का वो दिन था ,
चारों तरफ गोलियां और सर्द तेज़ हवाओं का शोर था,
पर हम भारतीय सैनिकों पर किसका जोर था।
इन कारगिल युद्ध के दिनों में भी प्रतिदिन एक ही धुन दोराहता था
कि रंग-ए-वतन में रंग जाऊंगा, भारत माँ का सहासी सपूत कहलाऊंगा।
अपने यूँ साथियों को आंखों के सामने मरता देखकर,
दिल पर पत्थर रखकर, अपना लहू चखकर,
भारत माँ की कसम खाकर, बिन डरे चट्टान के पीछे से सामने आकर,
दुश्मनों को गोलियों से भुना जाकर।
खुद को भी एक गोली लगी पर मैं एक ही धुन पे टीका रहा था,
रंग-ए-वतन में रंग जाऊंगा, भारत माँ का सहासी सपूत कहलाऊंगा।
मैं अकेला था वो थे आठ, पर उनके लिए मैं अकेला ही था बराबर-ए-साठ।
चार गोलियां लगने के बाद भी मैंने हार नही मानी,
और उन आठों को भी पड़ी बुरी मात खानी।
मेरा अंग-अंग लहू से लथपथ था,
पर मैने कारगिल पर तिरंगा लहराया था,
हम भारत माँ के सपूतों ने फिर भारत माता को जिताया था।
हमने पाकिस्तान को बुरी तरह युद्ध में हराकर,
कारगिल पर भारत माँ का तिरंगा लहराया था।
"दिल मांगे मोर" का नारा भी लगाया था।
उसके कुछ ही पलों बाद सर पर जो बचपन से धुन सवार थी,
वो धुन, मेरी सांसे भारत माँ पर न्योछावर होने के साथ पूरी हो गयी थी।
जीत-ए-जशन के बाद, जो धुन सवार थी वो पूरी हुई,
रंग-ए-वतन में रंग गया,भारत माँ का सहासी सपूत कहला गया।
जय हिन्द।