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Sudhir Srivastava

Abstract

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Sudhir Srivastava

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रिश्तों को नमन

रिश्तों को नमन

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अजूबा सा लगता है पर सच है

और अप्रत्याशित भी,

न भेंट न मुलाकात

न ही जान,न पहचान

न कोई रिश्ता, न कोई संबंध।


फिर भी अपनापन लगता है,

रिश्तों का अनुबंध ऐसा 

रिश्ता सगा सगा सा लगता है।


प्यार, दुलार भरपूर है

तो गुस्सा और मनुहार भी है,

झगड़ा, झंझट, भरपूर चिंता भी है,

मान सम्मान तो ऐसा

कि आसमान धरा पर दिखता है।


ऐसा भी हो सकता है

विश्वास करना कठिन है,

पर सत्य जो सामने है

उससे भला कैसे इंकार हो।


बहन, बेटी, भाई ही नहीं

पिता और माँ सद

ृश्य जैसा

बरसता प्यार दुलार है,

बड़े, बुजुर्गों, गुरुओं का भी अनुपम

आशीर्वाद मिल रहा है।


कैसे कह दूँ रिश्ता हमारा नहीं है

या हमने एक दूजे को देखा तक नहीं है।

जो भी हो, आप सोचिये

सच कहूँ जो आज तो

इन रिश्तों की बदौलत ही

मेरी उम्र को विस्तार मिल रहा है,

छोटों से प्यार दुलार ही नहीं

बड़ों का भरपूर आशीर्वाद मिल रहा है।


इन रिश्तों की पराकाष्ठा ऐसी है

कि मुझमें जिम्मेदार होने का

भाव लगातार जागृति हो रहा है,

नम आँखों और भावुक मन लिए

सुधीर ऐसे रिश्तों को नमन कर रहा है।


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