रिश्ते
रिश्ते
रिश्ते तो वो होते थे,
जो हमारे अम्मा बाबू बनाते थे,
रिश्ते के बीज मिट्टी में नहीं,
दिलों में बोए जाते थे...
अम्मा कहतीं,
रिश्ते प्यार के एहसास हैं
बाबू समझाते,
रिश्ते दो दिलों के जज़्बात हैं...
इसी ज्ञान की नींव पर,
रिश्तों का महल खड़ा होता था,
और चारों तरफ,
प्यार का रंग बिखरा पड़ा होता था..
लेकिन आजकल लोग रिश्ते,
लेन देन के आधार पर बनाते हैं,
छोटी सी बात पर,
मुँह फेर कर खड़े हो जाते हैं..
क्या रिश्तों में व्यापार ज़रूरी है?
क्या लेन देन का आधार ज़रूरी है?
क्यों अब रिश्तों में,
अम्मा के एहसास नहीं हैं?
या अब,
बाबू के वो जज़्बात नहीं हैं?
काश! लोग समझ पाते
रिश्तों की एहमियत को
अपनों के साथ को
ज़िंदगी में उनकी जरूरत को..
