पहचान
पहचान


तुमने मुझे अशक्त समझकर
मुझ पर आघात प्रतिघात किया
मेरी निर्मल काया से खेल
तुमने प्रहार ही प्रहार किया
मैं संस्कार की पूजारीन
मैं सहन शालनी देवी
मैं वात्सल्य की मूरत
मैं प्रकृति की भव्य धारा
मैं सृष्टि कर्ता तुम्हारी
तुमने ही मुझे भोग्य बना
सरे आम मंडित किया
तुमने ही बाजार गुलजार किया
अपशब्दों से मुझे नवाजा
क्रेता निर्जलता से बोली लगाया
मेरे रूह को क्षत-विक्षत किया
तुमने मुझे बेजार किया
मैं मौत की सोपान चढ़ने लगी
मेरी आर्तनाद सुनाई न दिया
तुम विजयी बन पताका फहराओगे
एक दिन तुम धोखा खाओगे
अपने ही अस्तित्व को खो दोगे
तुम्हारी बहन बेटी जब
मंडित हो सजेगी बाजारो में
संभोग के हवश मे तुम
उसे पहचान न पाओगे
उसे पहचान न पाओगे।