STORYMIRROR

Satpreet Singh

Abstract

4  

Satpreet Singh

Abstract

फ़ैसला

फ़ैसला

2 mins
514

कल शाम मैं था मुंडेर पर बैठा,

जब एक दुखियारे पिता ने मुझसे पूछा-

एक बरस होने को चला, कब आएगा 

मेरी बेटी के कातिलों पर फैसला ?


मैंने कहा- “माफ कीजिए बाबूजी !

सच है ये, मग़र कड़वा।

आरोपी हैं बालिग़, या फिर हैं नाबालिग़,

अभी यही तय करने में लग जाएगा एक अरसा।


सुनाता हूं दर्द आपको

अदालतों का खुद का।

कौन सुर्खियों में आया, किसकी गिरी साख,

कौन देशद्रोही, कौन राष्ट्रवादी,

किसकी वाणी मीठी, किसके ज़हरीले बोल,

इन सब बातों का अदालत में होगा फैसला।


हनन हुई किसकी निजता,

कौन चाहता संपत्ति की गोपनीयता,

कहाँ ज़रूरी है आधार, कहां नहीं चलेगा अंगूठा,

इन सब पर भी अदालत को करना है फ़ैसला।


कौन है अल्पसंख्यक, किसकी जाति पिछड़ी,

कौन कितना शोषित, किसको मिले आरक्षण,

किसकी है ज़मीन, किसके हैं भगवान,

किसकी संरचना पुरानी, किसका जन्मस्थान,

इन सब का फैसला भी अदालतों में है लटका।

 

पुजारी गिनती के ही और न्याय का मंदिर

मुरादियों से भरा पड़ा।

हर तरफ से लाचार आदमी,

अदालतों के आसरे ही है खड़ा।


रही बात आपके केस की-

तो अभी कई गवाह पलटेंगे, बयान बदलेंगे,

वकील छुट्टियां करेंगे, जजों के तबादले होंगे।

गवाहों के घर कत्लेआम होंगे,

मोमबत्तियाँ जलेंगी, खबरों में चर्चे होंगे,


सड़कों पर जनसैलाब उमडे़गा,

तब कहीं जाकर फैसला होगा।

आगे चलकर कुछ दोषी, कुछ बरी होंगे,

कुछ संतुष्ट, कुछ असंतुष्ट होंगे,

ऊपरी अदालत में लगाकर याचिका,

दोषी फिर जमानत पर होंगे।


आगे कोई और याचिका लगी,

तो फ़ैसलों को पलटने वाले फ़ैसले होंगे,

फिर हर फ़ैसलों पर पुनर्विचार होंगे।

आसान नहीं यह सफर इंसाफ का,

सोचिए, 

याचिकाओं के बोझ तले दबी व्यवस्था से

न्याय की उम्मीद में कितने लोग बैठे होंगे।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract