पैर ये मेरे निकल पड़े हैं
पैर ये मेरे निकल पड़े हैं
पैर ये मेरे निकल पड़े हैं,
एक नई मंजिल पर जाने को,
वो गांव की कच्ची गलियों से,
घर से झुग्गी झोंपड़ियों से,
गांव की कच्ची रोड़ों से,
जीवन की राह बनाने को,
पैर ये मेरे निकल पड़े हैं,
एक नई मंजिल पर जाने को।
माँ के हाथों के मख्खन से,
शहर की रबड़ी खाने को,
नंगे पैरों को छोड़ अब,
बूटों की खट खट खटकाने को,
पैर ये मेरे निकल पड़े हैं
एक नई मंजिल पर जाने को,
आज नंगा बदन ठिठुर रहा है,
पर सोच है कोट की धाक जमाने को,
माँ के स्वेटर की याद भी आये,
उसे याद न करते हैं,
कहीं याद मजबूर न करदे,
लौट कर वापस आने को
पैर ये मेरे निकल पड़े हैं
एक नई मंजिल पर जाने को।
पापा के साइकिल की गद्दी से,
मर्सडीज़ के ख्वाब सजाने को,
अंगारों पर चल जाने को,
जीवन को सुगम बनाने को
पैर ये मेरे निकल पड़े हैं,
एक नई मंजिल पर जाने को।