मोहब्बत की गली
मोहब्बत की गली
मोहब्बत ही था उसका नाम
रहती थी मेरे बगल के घर में
सड़क पार कर
दूसरे छोर पर।
अपने छत की मुँडेर पर
सूरज की पहली किरण सी
निकलती थी वो
हाथ में चाय का प्याला पकड़े
जैसे जीवन में मेरे
कोई रस घोल रही हो।
जब शाम मैं
घर लौटता
थोड़ा थका थोड़ा उलझा
तब गली के बच्चों के साथ
कंचे खेलती हुई
मद मस्त पवन के
झोंके जैसी उड़ती
थी वो।
मन मेरा कई बार सोचता था
की कोई कैसे हो सकता है
मोहब्बत जैसा ?
पाक, मासूम, ख़ुशनुमा।
कोई कैसे हो सकता है
मोहब्बत जैसा ?
ख़ुदा के नूर जैसा
पहली बारिश जैसा
बच्चे की मुस्कान जैसा
माँ के आँचल जैसा
पिता के ध्यान जैसा।
कोई कैसे हो सकता है
मोहब्बत जैसा ?
हिंदुओं की पुराण जैसा
मुसलमानों की क़ुरान जैसा
दूर से आ रही गिरिजा घरों की
धुनों जैसा।
आज सवेरे जब मैं उठा
मोहब्बत जा चुकी थी
हमारी गली को अलविदा कह
मातम सा था मोहल्ले में
कंचे और बच्चे ख़ाली थे
आसमान भी धीमे धीमे
बरस रहा था
मानो रो रहा था मोहब्बत के
जाने पे
मैं घर से कुछ काग़ज़ की नाव
बना लाया
बच्चों को बुला लाया
सपने तो फिर से सजाने थे
मोहब्बत के अरमान फिर से जगाने थे
मोहब्बत तो मुझ में ही थी
और अब मैं ही मोहब्बत था।