मनसा
मनसा
भावों के निर्माल्य बीन कर,
ढूँढ़ रहे उर की झाँकी।
धूमिल पृष्ठों से झाँक रहे थे,
संवेदन अतिशय बाकी।
धुसर-माटी सने हुए से,
यक्ष-प्रश्न शत खडे़ हुए।
उत्तर के हतप्रभ से अक्षर,
धुँधलाए भी अडे़ हुए।
शैशव के अल्हड़ गुँञ्चों ने,
दिवा-स्वप्न थे खूब बुने।
काल-चक्र के वृत्त-व्यास ने,
अयाचित ही सूक्त चुने।
सत् प्रारब्ध-प्रबलता के घट,
स्वतः-सिद्ध स्वीकार किये।
प्राणो को आश्वासन देकर,
यत्-किंचित आभार दिये।
क्षत-विक्षत हो घूम रहे कित,
रजत-कांति को याद नहीं।
वर्तित-प्रासो के पाश जो मिलते,
परावर्त हो यहीं-कही।
