महसूसियत
महसूसियत
सुबह-सुबह वो वातायनो से आती हुयी
उन मधुर आवाजों को गुनगुनाती हुई
बस एक सीढ़ी उतर कर बाग़ीचे में ,
वो जो ओस रेशे की तरह गिरे हुए हैं
उन गुलाबों की पंखुड़ियों पर!
उसकी उँगलियों की चंचलता ने
उस पर से चाँदी सी चमकती हुई
परत जैस हटायी उन नाजनीं उँगलियों
के अन्तिम शिरे से लेकर हृदय के उस
पावन कुन्ज तक , सिर्फ़ एक स्पर्श ही नही ,
ना ही केवल सिर्फ़ एक छुअन मात्र है ,
ये तो पूरे तन-मन में जैस श्रृंगार से लिपटी
लरजिश की अकल्पित भावना दौड़ी हो!
हाँ कुछ इसी तरह मैं तेरे अधरो से निकले
अपने हिस्से हर लफ्ज़ को महसूस करता हूँ !