मैं
मैं
गैरों के शहर में मिली पहचान और शोहरत के साथ,तुम्हें "मैं" मिली और मेरे मिलते ही तुम्हें यह शहर कुछ अपना सा लगने लगा।
हम दोनों एक दूसरे से बिल्कुल अलग थे, सोच-विचार और यहाँ तक कि प्यार भी हमारा एक दूसरे के प्रति अलग था। हम साथ पढ़े, लड़े-झगड़े, घूमे- फिरे और कब इनसब में गड़बड़ी हुई पता नहीं चला और देखते ही देखते एक-दूसरे से प्यार करने लगे । हम एक दूसरे के फैसले में एक दूसरे के साथ खड़े रहते (सही और गलत की पहचान करते हुए)।
लेकिन तुम तो हमेशा से ही बाहरी दुनिया में रहे। अनजान लोगों से मिलना-झुलना, चंद लम्हों में ही अपनी मुस्कान से उन्हें दोस्त बनाना और ना जाने क्या क्या... तुम्हारे लिए यह सब सामान्य था, लेकिन मैं तुमसे बिल्कुल ही अलग थी और हूँ भी। यानी मेरे लिए किसी को दोस्त बनाना , मिलना- जुलना,पार्टी करना, घूमने जाना और भी न जाने बहुत कुछ ,कितना कुछ जो सामान्य नहीं था। पर जब तुमको देखा,जाना,समझा तो पता चला कि लड़कों को भी दोस्त बनाया जा सकता है।
पता नहीं कब और कैसे दोस्ती हुई और ये दोस्ती प्यार में बदल गई। तुमसे इंटरेस्टिंग बातें करना,अपना डर,अच्छाई-बुराई सब शेयर करना, मानो कभी भी खुद को छुपाने की जरूरत पड़ी ही नहीं।
तुम हर चीज में मुझसे आगे और मैं एकटक बस तुम्हें देखती और उन पर गौर करती। मैं कहीं भी जाती,कुछ भी करती तो तुमसे साझा करती, बिना किसी परवाह के।
चाहे गलत रहूँ या सही रहूँ।
हालांकि ,हम एक दूसरे के साथ बहुत कम समय बिताया करते पर जो भी करते उसमें सिर्फ "हम" होते,यानी "मैं और तुम" ।
शायद हम कभी भी एक दूसरे के साथ बड़ी-बड़ी परेशानियों में खड़े ना रह सके,लेकिन मानसिक तौर पर हम हमेशा एक दूसरे के साथ रहे। यह बात तुम भी जानते हो और मैं भी।
तुम, तुम्हारी जिंदगी, तुम्हारा प्यार सब मुझसे अलग, पर हम अलग होकर भी हमेशा एक दूसरे के साथ रहे। पता नहीं, कैसे इतना सब हो गया, और आज भी इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए एक दूसरे के साथ हैं ।
बस इसी उम्मीद से की जब हम ( मैं या तुम) मरे तो दोनों एक दूसरे के साथ हों .....