मैं कौन?
मैं कौन?
आयुष्य की तीसी लांघते हुए
यात्रा जब आधी ख़त्म होने को है
अपने बौने चरित्र के सामने खड़ी
क्षितिज तक फैली हुई
विचलित रंगों से लिप्त
जीवनरूपी दीवार देखकर -
किसे क्या समझूँ
क्या अर्थ निकालूँ
किसे सत्य और किसे कहानी कहूँ
सब कुछ समझ से परे है
इस दीवार का और कितना हिस्सा
मेरे इन बेईमान आँखों को नसीब होगा
और कितनी ये पहेली समझ पाउँगा
इस हीनता से पूरा शरीर सिहर उठा है।