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N K JAIN

Abstract

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N K JAIN

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मैं भी, ईश्वर का वरदान हूँ

मैं भी, ईश्वर का वरदान हूँ

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जब ईश्वर ने अपनी शक्ति से, ये ब्रह्माण्ड बनाया था 

तब उसको भी शुरुआत में, समझ नहीं कुछ आया था 

मनु को भेजा धरती पर , जाओ जग का कल्याण करो 

जाओ धरती पर जाकर, काम कुछ महान करो 


मनु ने खोली अपनी द्रष्टि, तब उसने देखी ये सृष्टि 

अकेले इस धरती पर आकर, उसको मिली थी केवल वृष्टि

सुंदरता की कमी नहीं थी, वृक्ष और उद्यान थे 

चारो तरफ पशु और पक्षी, निर्बल और बलवान थे 


अकेला अपने आप को पाकर, मनु बहुत हताश हुआ 

तब ईश्वर को भी अपनी, गलती का एहसास हुआ 

ईश्वर ने भेजा था मुझको, जाओ, अब इक काम करो 

मैं तो थका हुआ हूँ, तुम आगे, सृष्टि का निर्माण करो


विकसित समाज हो इस जग में, बना रहे इक संतुलन 

इसीलिए मनु का मुझसे, हुआ था यहाँ मिलन

ईश्वर से बस यही शिकायत, क्यों लिखा ये उसने किस्सा था 

इस समाज में मेरे वजूद का, जब नहीं कोई भी हिस्सा था


ईश्वर की कृपा से देखो, मैं भी धरती पर आयी थी 

पर आगे बढ़ने की मुझको, राह नहीं दिखाई दी 

इस संसार के विकास में, मुझसे बस ये भूल हुई

क्यों इनके सुख दुःख की खातिर, इनके पैरों की धूल हुई


इससे अच्छा ये होता, यहां कभी भी ना आती, 

इस समाज की दोहरी नीति, समझ नहीं मुझको आती

पत्थर की नारी को पूजे, जिन्दा नारी को नोचें हैं 

पैदा होने से पहले मुझको, मारने की सोचे हैं


जिसने नींव रखी इस जग की, जिसने संसार बसाया है 

उस नारी को इस समाज ने, क्यों नहीं अपनाया है

जिसने सबको जन्मा है, इतनी वो कमजोर नहीं 

पर इस समाज के आगे कुछ का, चलता कोई जोर नहीं 


धिक्कार की पात्र देखो, हर एक वो नारी है 

जिसने अपनी कोख में, अपनी परछाई मारी है 

ये जग मेरे लिए नहीं, ये जान कर अनजान हूँ 

इसको आगे ले जाने की, इकलौती पहचान हूँ 


नारी रूप में ईश्वर का, तुम पर एक एहसान हूँ 

मानो या ना मानो, मैं भी, ईश्वर का वरदान हूँ 

मानो या ना मानो, मैं भी, ईश्वर का वरदान हूँ।


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