माँ, मैं लिखना चाहती हूँ
माँ, मैं लिखना चाहती हूँ


मैं लिखना चाहती हूँ कि जब पहली बार
आपने मुझे चूमा था तो वह स्पर्श कैसा था,
पर रामू काका का पुचकारना नहीं पसंद था।
जब पहली बार मेरी कविता को ईनाम मिला
तो आपने कैसे तारीफों के पुल बांधे थे,
पर बाबा का बेवजह हाथ उठाना पसंद नहीं था।
माँ, मैं अपने मीठे-खट्टे एहसासों
को शब्दों में डुबाना चाहती हूँ,
अपनी स्याही के नील रंग से
दर्द को जुबाँ देना चाहती हूँ।
अपनी कागज के कोरेपन में चुभता
अकेलापन दूर करना चाहती हूँ,
माँ, मैं लिखना चाहती हूँ।
पर तू सिर्फ कहती रहती है,
कोसती है, डाँटती रहती है,
न जाने कितने अपशब्दों को
अपनी जुबाँ में बसेरा देती है।
तू क्यों नहीं समझती है कि
लिखना मेरा शौक नहीं है,
ये तो मेरी रूह में, मेरे जिस्म में,
मेरी हर एक साँस में बसा हुआ है।
जज़्बातों को, अल्फाज़ों की
चादर ओढ़ाना आसान नहीं है,
मैं हर बेघर ख्याल को
घर देना चाहती हूँ।
माँ, मैं लिखना चाहती हूँ,
माँ, मैं लिखना चाहती हूँ।