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PreetiSuman Gupta

Inspirational

4.0  

PreetiSuman Gupta

Inspirational

मान और सम्मान

मान और सम्मान

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कमरे में दाखिल हुई, तो देखा, बिखरा पड़ा था सारा सामान;

मन में झाँका, झकझोर दिया खुदको, न जाने कहाँ गुम था मेरा मानI 

कहने को तो क्षितिज़ भी है, और है पूरा आसमान;

अंत का सफ़र फिर भी पूरा करता है सूना शमशानI


मान भी जाऊँ अगर, कि यहीं, मेरे मन में बसते थे तुम्हारे प्राण,

सुनने में मीठे-सुरीले थे शब्द, सरीख़े कोई नुकीले कटीले बाणI 

जब भी लगता था, एक घाव नया देकर पुराने को हरा कर जाता था;

और कहने को मेरे पास बस यही था, कि तुम्हें कुछ समझ नहीं आता था| 


 उसकी आँखों के इशारे, वो नयन कजरारे, होठों की सुर्ख लाली और कान में लचकती वो बाली;

अपनी पहचान उतारकर, वो तो बन गयी थी, किसी बड़े नाम की घरवाली| 

सामान को समेटकर, कमरे को चमका दिया था बिल्कुल साफ़;

पराया धन और अमानत मानकर, खुद को देती सज़ा और दुसरों को करती आई माफ़| 


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