मान और सम्मान
मान और सम्मान
कमरे में दाखिल हुई, तो देखा, बिखरा पड़ा था सारा सामान;
मन में झाँका, झकझोर दिया खुदको, न जाने कहाँ गुम था मेरा मानI
कहने को तो क्षितिज़ भी है, और है पूरा आसमान;
अंत का सफ़र फिर भी पूरा करता है सूना शमशानI
मान भी जाऊँ अगर, कि यहीं, मेरे मन में बसते थे तुम्हारे प्राण,
सुनने में मीठे-सुरीले थे शब्द, सरीख़े कोई नुकीले कटीले बाणI
जब भी लगता था, एक घाव नया देकर पुराने को हरा कर जाता था;
और कहने को मेरे पास बस यही था, कि तुम्हें कुछ समझ नहीं आता था|
उसकी आँखों के इशारे, वो नयन कजरारे, होठों की सुर्ख लाली और कान में लचकती वो बाली;
अपनी पहचान उतारकर, वो तो बन गयी थी, किसी बड़े नाम की घरवाली|
सामान को समेटकर, कमरे को चमका दिया था बिल्कुल साफ़;
पराया धन और अमानत मानकर, खुद को देती सज़ा और दुसरों को करती आई माफ़|