सुकून
सुकून
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ऐसे तो होती नहीं कही भी मेरी सुनवाई,
पर लिखने का शौक पाल रखा,
तो यह कविता रचाई।
एक पल लगता है,
समझती हूँ मैं सब कुछ,
दूसरे ही पल लगता है शून्य,
जैसे बचा ही नहीं अब कुछ।
सबकी नमकीन बातों से,
खुद की मिठास खोने लगी,
आँखों में भरे,
रंगीन सपनों से डर कर रोने लगी।
मन को समझा - बुझाकर, मनाया बहलाया,
नई सुबह में, नई जिंदगी का संगीत सुनाया।
ख़ामोशी में बैठकर सोचने लगी
आने वाला कल का, पुरानी दर्द भरी बातों ने
चैन छीन लिया इस पल का।
बैचनी से उठ खड़ी हुई,
सुकून मिला तब,
दिन भर के काम और रसोई पूरी हुई जब।