किन्नर
किन्नर




कोई कहे किन्नर, कोई कहे छक्का, कोई कहे हिजड़ा,
न जाने क्यों मुझे खुद से अलग समझता है ये समाज,
माना कि हूं मैं सबसे अलग,
नहीं है मेरे रहन सहन आम, है मेरी चाल कुछ अलग,
पर मैं भी हूं एक इंसान,
फिर क्यों देखते है मुझे जैसे हूं मैं एक अभिशाप।
हुआ था मेरा भी जन्म एक परिवार में,
थे मेरे भी ख्वाब कुछ ख़ास,
पर थी मेरी एक खता न मैं लड़का, न मैं लड़की,
था मैं कुछ अलग ही।
एक रोज सब को हो गई खबर,
था मैं इकलौता सहारा अपने मां बाप का,
पर छोड़ आए मुझे किन्नरों की बस्ती में,
कर दिया मुझे अलग खुद के ही मां बाप से,
छीन ली मेरी खुद की पहचान।
अब मैं था बस एक किन्नर,
यही था जीवन का सत्य मेरा जिसे अब मुझे अपनाना था,
तालियां और जिस्म बेच कर बस अब मुझे पैसे कमाना था।
कहते है लोग मेरी दुआओ का असर बड़ा है,
पर ये खुदा तेरे ये बन्दे क्यों समझते है मुझे एक गन्दा खून,
हूं मै भी तो एक इंसान फिर क्यों दे दिया मुझे किन्नर,
हिजड़ा, छक्का जैसे नाम।
हूं खुदा मैं भी तो तेरा एक बंदा,
फिर क्यों समझते है मुझे एक अभिशाप।