खोया - पाया
खोया - पाया
क्या खोया, क्या पाया है ?
म़जिल की चाहत ने हम सबको ही
आज़माय है |
इस कदर मशरूफ रहे हम जिंदगी
सँवारने में,
जो सँवारा हुआ था उसी को गँवाया है |
खोने को तो बहत कुछ था,
जिंदगी ने हर मोड पर बार-बार
आज़माया भी खूब ।
सहारा तो समंदर की लहरों को भी नही होता
लेखिन सागर का साहिल से मिलना भी तो ज़रुरी है |
हम चंद लम्हों से जिंदगी तो बयां
नही कर सकते ।
इक लडने की चाह थी,
सपनो को पूरा करने का जज्बा था ।
खोया तो बहत कुछ,
कुछ बनावटी लोग,
कुछ बेहद अजीज़ यादें
और अपना एक हिस्सा ।
अाज ढूंढने की कोशिश करी तो मिला
क्या,
एक मुसकुहराहट अपने चेहर पे ।
क्योंकि अपना वजूद कायम रहा |
खुद को नहीं गँवाया है |