ख़ुद में दावानल लिए हुए है
ख़ुद में दावानल लिए हुए है
खुद में एक दावानल लिए हुए,
स्त्री एक धधकती प्रतिमा सी है !
एक ज्वालामुखी सी दहकती है ;
लोग कहते हैं कि,बात ये ज़रा सी है !
अंतस के सारे दुखों को खुद में ,
समाहित रखती आई है अब तक !
सुलगती आई है आँसूओ के सैलाब में,
खुद को उबार ही नहीं पाई अब तक !
हरपल एक चुभन सी सहती रहती है,
बेटी,बहन, माँ बन सृष्टि को सहेजती है !
अपने मन की अंतरिम दशा किसी तरह ,
संभालने की कोशिश करती रहती है !
कभी फुर्सत के लम्हों में खुद का,
धुंधला सा एक अक्स ऊकेरती रहती है !
कभी तमाम लोगो की भीड़ भाड़ में,
अपने अस्तित्व की पहचान खोजती रहती है !