ख़ाली किताब
ख़ाली किताब
कोई पढ़ कर नज़रंदाज़ करता है
तो कोई पढ़ने से भी एतराज करता है
किसी को होती कदर मेरी
तो वो मेरा लिहाज़ करता है
किसी की बद्दुआ में मशरूफ़ रहता हूँ मैं
तो कोई हर सुबह मेरा रियाज़ करता है
यूँ तो ख़ामोश ही रहता हूँ मैं
इतने सितम के बावजूद
मगर ये मेरे अंदर का जो क़लमकार है
ये ही बेवजह आवाज करता है
सोचता हूँ किसी को सुना दूँ मैं
ये हाल ए दिल मेरा
मगर यहाँ तो सबको मेरा लफ्ज ही
धोखेबाज़ लगता है
