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Insad Ali

Abstract Tragedy

4.0  

Insad Ali

Abstract Tragedy

इश्क़ और मौत

इश्क़ और मौत

2 mins
95


हैं हज़ार राहें इस जहां में मगर

हैं हज़ार राहें इस जहां में मगर 

सुना है तेरी संगत मे शुकुन बहुत है साथी

ऐ इश्क़ मैंने मौत को चलते देखा है 

हर घड़ी हर लम्हा मैंने उसको फिसलते देखा है,

है खामोश गुमसुम इक साया सा वो 

है अपनी अपनी ही बिछड़ी हुयी सी काया सा वो 


उसको तन्हा मायूस उस शाम सा ढलते देखा है

भूखे प्यासे रहकर उसे तेरी इंतज़ार में हर

इक पल मरते देखा है

है पागल वो गुमसुम तेरा ही वो हिस्सा 

है भूला जिसे तू तेरा ही वो किस्सा 

गुजरे लाखों ज़माने , बीते लाखों फ़साने 

है मगर वो खड़ा उस थकी रह - गुज़र पर 

मगर सोचता हूँ अब क्या यही मौत है वो 

जिससे मैंने इस जहां को हर पल डरते देखा है

ऐ इश्क़ मैंने मौत को मरते देखा है

ऐ इश्क़ मैंने मौत को मरते देखा है

उसको मैंने हर इक आरज़ू से तेरी

उसको मैंने हर इक आरज़ू से तेरी 

डरते देखा है 


बीते अरसा, ज़माना या चाहे बीत जाए कई सदियाँ 

इक तेरी इंतज़ार मे मैंने उसको ठहरते देखा है 

ऐ इश्क़ मैंने मौत को मरते देखा है

यूं तो ढलती हैं शामें और रातें कई 

याद आती है सर्दी की सर्द रातें कई 

उन शर्दी की रातों की बातें कई

वो भूली बिसरी धूमिल सी यादें कई

इन सबको मैंने इक लम्हे में सिमटते देखा है 

ऐ इश्क़ मैंने उसको बिखरकर संवरते देखा है  

तेरी याद मे मैंने खुद को भी डरते देखा है

ऐ इश्क़ मैंने मौत को मरते देखा है

ऐ इश्क़ मैंने मौत को मरते देखा है



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