ग़ज़ल
ग़ज़ल
पाक रिश्तों में भी हम दरार कर बैठे।
खुद ही ज़िन्दगी अपनी तार-तार कर बैठे।।
था यकीन आएगा लौट के ना दोबारा।
फिर भी उसी का हम इंतज़ार कर बैठे।।
ना मिला कोई दुश्मन जब यहाँ सिवा अपने।
इस लिए सीने पे खुद ही वार कर बैठे।।
प्यार करने वाला तो कोई था नहीं शायद।
देखा आईना तो हम खुद से प्यार कर बैठे।।
कर्म ही तेरा खुदा था यहां तो फिर "सर्जक"।
क्यों नसीब पे इतना ऐतबार कर बैठे।।