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Ajay Goswami

Abstract

4.1  

Ajay Goswami

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एक गुज़ारिश

एक गुज़ारिश

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थम गई है जिंदगी बंद पहिए की तरह, 

उलझ रही हैं उलझनें उलझाने के लिए

मिल रही है दिलासाऐं सब झुठलाने के लिए


 शुक्र है उनको जो अपने बसर में बसे हैं

दुआएँ उनको जो किसी शहर में फंसे हैं

अजीब दास्तां है इस प्रकृति के खेल की

जीव जंतु मगन हैं इंसान कहर में फंसे है


लग रहा वक्त थम सा गया है, 

सुनसान गलियों में कुछ जम सा गया है

था कभी जमघट इन राहों में

वहाँ सब कुछ बदल सा गया है


हिम्मत ना हार ए राह के राहगीर, 

अंधरे ने उजाला कभी रोका ही नहीं, 

फिर तू क्यों इतना सहम सा गया है


वक्त है ये आता अपनी ताकत दिखाने, 

है इंसान को मौका अपनी इंसानियत दिखाने 


राह ए तूफान हमेशा रहा नहीं करते

बे वज़ह भावनाओं में बहा नहीं करते


है करतूत इंसान की

अब इंसान ही भुगत रहा, 

नादान परिंदे शर्मिंदा है

ये कैसा जुगत रहा


कश्तीयां ए महफिलें उलझ ही गईं

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कुछ मुश्किलें सुलझ सी गई

 जहाँ दिखता नहीं आसमाँ

वहाँ नया सवेरा है

अब दिख रहा कितना धुआँ हमने घेरा है


जो डटे हुए हैं 24 घंटे उनकी धारा मोड़ दो

हर हिन्दुस्तानी कुछ वक्त दुनियादारी छोड़ दो

देखा ऊपर वाले तुमको मंदिर मस्जिद तस्वीरों में

है बंद सब मंदिर मस्जिद

तुम डंटे हुए हो ज़मीरों में


ना वक्त अपना देख रहे

ना रोटी अपनी सेक रहे

बन गया आशियाना हॉस्पिटल जिनका

वो चौबीस घंटे मरीज़ देख रहे


हम अंदर हैं अंदर ही सही

खिड़की से झांकते बंदर ही सही


ख्वाहिशों का सफर सजाया जाए 

अपनों से अपनापन जताया जाए

ना वक्त मिलता उनसे उनकी बात सुनने का,

आज उनकी और अपनी सुनाया जाए


घर में हैं तो घर जैसे ही सही,

थोड़ा माँ बाप से बतयाया जाए

पूरा ना सही कम ही सही

थोड़ा हाथ उनका बटाया जाए


गुज़ारिश यही है इस वक्त की

दिल चाहे वो कर लो घर में

मिलकर कोरोना को भगाया जाए।


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